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चौथा उद्देशक
१७७ शिष्य जिज्ञासा करता है कि क्या वर्षावास में वस्त्र-पात्र निर्देश है-भावना है वैसे ही श्रुतोपसंपद् तक जाननी चाहिए। लेना कल्पता है ? आचार्य ने कहा-जैसे कारण से शैक्ष कल्पता उसमें निश्रा विषयक यह नानात्व है। है, वैसे ही तालचर आदि से दान में प्राप्त वस्त्र आदि कल्पता है। १८५५. साधारणहितासुं, सुत्तत्थाई परोप्परं गिण्हे। १८४९. साधारणो अभिहितो,इयाणि पच्छाकडस्स अवयारो।
वारंवारेण तहिं, जह आसा कंडुयंते वा।। सो उ गणावच्छेइय, पिंडगसुत्तम्मि भण्णिहिती॥ यदि सभी द्विवर्ग, त्रिवर्ग समाप्तकल्प वाले मुनि एक ही क्षेत्र साधारण शैक्ष विषयक मर्यादा बताई जा चुकी है। अब में रहते हैं, वह साधारण क्षेत्र है। वहां अश्व कंडूयति की भांति पश्चात्कृत का अवतार-प्रस्ताव है। उसके विषय में। बारी-बारी से वे परस्पर सूत्रार्थ लेते हैं तो सूत्रार्थ के प्रदाता का गणावच्छेदकपिंडसूत्र में कहा जाएगा।
वह क्षेत्र आभाव्य होता है। १८५०. एमेव गणावच्छे, एगत्त-पुहत्त दुविधकालम्मि। १८५६. अह पुव्वठिते पच्छा, अण्णो एज्जाहि बहुसुते खेत्ते। जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं॥
सो खेत्तुवसंपन्नो, पुरिमल्लो खेत्तिओ तत्थ॥ इसी प्रकार गणावच्छेदक से संबंधित दोनों कालों के जिस क्षेत्र में पहले से ही साधु स्थित हैं और बाद में कोई पृथकत्व और एकत्व के सूत्र जानने चाहिए। उनमें जो नानात्व है, बहुश्रुत मुनि उस क्षेत्र में आता है तो पूर्व स्थित मुनियों की उसे मैं संक्षेप में बताऊंगा।
अनुमति से वह क्षेत्र उपसंपन्न हो जाता है, क्षेत्रस्वामी पूर्ववर्ती ही १८५१.जह होति पत्थणिज्जा, कप्पट्ठी नीलकेसि सव्वस्स। होता, पश्चात्वर्ती नहीं।
तध चेव गणावच्छो, किं कारण जेण तरुणो उ॥ १८५७. खेत्तिओ जइ इच्छेज्जा, सुत्तादी किंची गेण्हिउं। जैसे कप्पट्ठी-बालिका और नीलकेशी-तरुणी स्त्री सबके
सीसं जइ मेधावी, पेसे खेत्तं तु तस्सेव॥ लिए प्रार्थनीय होती है, उसी प्रकार गणावच्छेदक भी। शिष्य ने क्षेत्र स्वामी यदि आगंतुक मुनि के पास किंचिद् सूत्र आदि पूछा-क्या कारण है ? इसका कारण है कि गणावच्छेदक तरुण लेना चाहता हो और वह अपना मेधावी शिष्य को उसके पास
भेजता है तो वह क्षेत्र पूर्वस्थित का होता है, पश्चात् आगत का १८५२. दोण्हं चउकण्णरह,भवेज्ज-छक्कण्ण मो न संभवति।। नहीं।
सिद्धं लोके तेण उ, परपच्चयकारणा तिनि॥ १८५८. असती तम्विधसीसेऽणिक्खित्तगणे उ वाए संकमति। लोक में यह प्रसिद्ध है कि दो व्यक्तियों के अर्थात् चार कानों
अहवावि अगीतत्थे, निक्खिवती गुरुरा न य खेत्तं। वाली बात रहस्य रह सकती है। तीन व्यक्तियों अर्थात् छह कानों उस प्रकार का शिष्य न होने पर गीतार्थ में गण का निक्षेप की बात रहस्य नहीं रह सकती। इसीलिए दूसरों में विश्वास पेदा न करने पर पश्चात् आगत के पास वाचना लेता है तो वह क्षेत्र करने के लिए तीन मुनियों का विहार सम्मत है।
उसमें संक्रमित हो जाता है। यदि अगीतार्थ शिष्य में गण का १८५३. जयणा तत्थुडुबद्धे,
निक्षेप करता है, उसका प्रायश्चित्त है चार गुरुमास। क्षेत्र भी समभिक्खाऽणुण्ण निक्खम पवेसा। उसका नहीं होता, वह पश्चात् आगत वाचक का होता है। वासासु दोन्नि चिट्ठे,
१८५९. अध निक्खिवती गीते, होही खेत्तं तु तो गणस्सेव।
दो हिंडेऽसंथरे इतरे॥ __ तस्स पुण अत्तलाभो, वायंत न निग्गतो जाव। ऋतुबद्धकाल में यह यतना है-साथ में भिक्षा, साथ में यदि गीतार्थ शिष्य में गण का निक्षेप करता है और फिर अनुज्ञा, साथ में निष्क्रमण और साथ में प्रवेश। वर्षाकाल की आगत मुनि से वाचना लेता है तो क्षेत्र गण का ही होता है, वाचक यतना यह है-दो मुनि भिक्षा के लिए घूमे और दो मुनि वसति में का नहीं। उस वाचक का आत्मलाभ क्षेत्र आदि का तब तक है रहे। यदि पर्यास भिक्षा प्राप्त न हो तो दूसरों द्वारा आनीत भिक्षा में । जब तक वह वाचना देता है, वहां से निर्गत हो जाने पर वह लाभ से ग्रहण करे।
गण में संक्रांत हो जाता है। १८५४. एमेव बहूणं पी, जहेव भणिता उ आयरियसुत्ते। १८६०. आगंतुगो वि एवं, ठवेंत खेत्तोवसंपदं लभति। जाव उ सुतोवसंपद, नवरि इमं तत्थ नाणत्तं॥
साधारणे य दोण्हं, एसेव गमो य नायव्वो॥ इसी प्रकार बहुत्व के विषय में भी ऋतुबद्ध और वर्षाकाल आंगुतक मुनि भी इस प्रकार गण में शिष्य को स्थापित कर में जानना चाहिए। तथा जैसे आचार्य के सूत्र में बहुत्व विषयक क्षेत्रोपसंपदा को प्राप्त करता है। साधारण क्षेत्र में दो आचार्य हों १. कारण है-यदि शैक्ष पूर्व में उपस्थापित हो गया हो, तथा आचार्य में स्वीकार किया जा सकता है। उसको अव्यवच्छित्तिकारक मानते हों तो वर्षावास में उसे शिष्यरूप For Private & Personal Use Only
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