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चौथा उद्देशक
१७३ १८०१. एगागिस्स उ दोसा, असमत्ताणं च तेण थेरेहिं। उपाश्रय के तीन प्रकार हैं-पुष्पावकीर्णक, मंडलिका-बद्ध
एस ठविता उ मेरा, इति व हुमा होज्ज एगागी। तथा आवलिकास्थित। मुनि जा रहा है। उससे पूछा-उपाश्रय
एकाकी के तथा असमाप्तकल्पिकों के अनेक दोष होते हैं, कहां है ? (मुनि ने कहा-क्यों पूछ रहे हो? उसने कहा-मैं प्रव्रज्या इसलिए स्थविरों ने मर्यादा स्थापित की है। यह भी कारण है कि लेना चाहता हूं।) इस प्रकार पूछने पर जो निकट उपाश्रय को दूर क्षेत्र के अनाभाव्य होने से कोई मुनि एकाकी तथा असमास- बतलाता है, अथवा दूर को निकट बतलाता है तो उसे लघुमास कल्पिक न हो।
का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है और उसे वह शिष्य नहीं मिलता। १८०२. दोमादि ठिता साधारणम्मि सुत्तत्थकारणा एक्कं। १८०७. किह पुण साहेयव्वा, उद्दिसियव्वा जहक्कम सव्वे। जदि तं उवसंपज्जे, पुव्वठिता वावि संकंतं॥
अध पुच्छति संविग्गे, तत्थ व सव्वे व अद्धा वा॥ दो आदि मुनियों के गच्छ एक ही क्षेत्र में एक साथ रह रहे शिष्य ने पूछा-उपाश्रय के विषय में कैसे बोलना चाहिए? हैं। वह क्षेत्र साधारणतया उनके लिए आभाव्य है। इनमें से एक आचार्य ने कहा-सभी उपाश्रयों को यथाक्रम उद्दिष्ट करना गच्छ के मुनियों को सूत्रार्थ के कारण से दूसरे उपसंपन्न करते हैं, चाहिए, कहना चाहिए। यदि वह संविग्न और तपस्वी मुनियों के पूर्वस्थित मुनि आगत गच्छ को उपसंपन्न करते हैं तो जिसके विषय में पूछे तो उसे यथार्थ उत्तर देना चाहिए। यथार्थ उत्तर न पास उपसंपन्न होते हैं, वह क्षेत्र उसमें संक्रांत हो जाता है, वह देने पर प्रायश्चित्त आता है। उसे वह शिष्य नहीं मिलता। जहां क्षेत्र उसका हो जाता है।
सभी या आधे मुनि संविग्न होते हैं तो वह पृच्छक जहां जाता है, १८०३. पुच्छाहि तीहि दिवसं,सत्तहि पुच्छाहि मासियं हरति । उसका वह आभाव्य होता है।
अक्खेत्तुवस्सए पुच्छमाण दूरावलिय मासो॥ १८०८. मोत्तूण असंविग्गे, जे जहियं ते उ साहती सव्वे। तीन पृच्छाओं के कारण एक दिन तथा सात पृच्छाओं के
सिट्ठम्मि जेसि पासं, गच्छति तेसिं न अन्नेसिं॥ कारण एक मास तक वह क्षेत्र उसके लिए आभाव्य होता है। असंविग्न मुनियों को छोड़कर शेष सभी मुनियों के विषय में अक्षेत्र में स्थित मुनियों से उपाश्रय विषयक मार्गणा करनी वह यथार्थ रूप में बताता है। कहने के पश्चात् वह पृच्छक जिनके चाहिए। (वह आगे की जाएगी) यदि पूछने पर वह अपना उपाश्रय पास जाता है, उनका वह शिष्य होता है, दूसरों का नहीं। दूर अथवा निकट अथवा आवलिकाप्रविष्ट (अथवा मांडलिक या १८०९. नीयल्लगाण व भया, हिरिव त्ति असंजमाधिकारे वा। पुष्पावकीर्ण) बताता है तो उसका प्रायश्चित्त है एक लघुमास।
एमेव देसरज्जे, गोमेसु य पुच्छकधणं तु॥ १८०४. ण्हाणऽणुयाण अद्धाण,
यदि वह प्रव्रजित होने वाला पृच्छक उस क्षेत्र में अपने सीसे कुल गण चउक्क संघे य।। ज्ञातिजनों के भय से अथवा लज्जावश अथवा वह क्षेत्र गामादिवाणमंतर,
असंयमाधिकरण होने के कारण वह वहां प्रव्रजित होना नहीं
महे व उज्जाणमादीसु॥ चाहता, इसलिए दूसरे देश, राज्य या ग्राम विषयक पृच्छा करता १८०५. इंदक्कील मणोग्गाह, जत्थ राया जहिं व पंच इमे। है तो उसे यथार्थ कथन करना चाहिए।
अमच्च-पुरोहिय-सेट्टि सेणावति-सत्थवाहो य॥ १८१०. अहवा वि अण्णदेसं, संपट्ठियगं तगं मुणेऊणं। प्रतिभा के स्नान के निमित्त, रथयात्रा के निमित्त, अध्वशीर्ष
माया-नियडिपधाणो, विप्परिणामो इमेहिं तु॥ (आपदाबहुल मार्ग में), कुलसमवाय में, गणसमवाय में, अथवा अन्यदेश के लिए प्रस्थित उस दीक्षित होने वाले चतुष्कसंघ समवाय में, ग्राममह, नगरमह, वानमंतरमह, व्यक्ति को जानकर वह माया और निकृति प्रधान मुनि इन उद्यानमह, इंद्रकीलमह आदि स्थानों में सकलमनोग्राह राजा वक्ष्यमाण वचनों से उसे विपरिणत करने के लिए कहता हैअथवा ये पांच हों-अमात्य, पुरोहित, श्रेष्ठी, सेनापति और १८११. चेइय साधू वसही, वेज्जा व च संति तम्मि देसम्मि। सार्थवाह- वहां चले जाने पर मुनियों का साथ में रहना-वह
पडिणीय सण्णि साणे, विहारखेत्ताऽहिगो मग्गो॥ साधारण वसति होती है। (वह पूर्वस्थित मुनियों की आभव्य जिस देश में तुम जाना चाहते हो वहां न चैत्य है, न साधु होती है।
हैं, न वसति है और न वैद्य हैं। वहां प्रत्यनीक हैं। वहां संज्ञी १८०६. पुप्फावकिण्ण मंडलियावलिय
अर्थात् दान आदि देने वाले श्रावक नहीं हैं। वहां कुत्तों का बाहुल्य उवस्सया भवे तिविधा। हैं। वहां न विचारभूमी है और न विहारयोग्य क्षेत्र हैं। वहां जो अब्भासे तस्स उ,
अत्यधिक मार्ग हैं। (इस प्रकार वह उसको विपरिणत करना दूरे कहंत न लभे मासो॥ चाहता है!) For Private & Personal Use Only
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