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है।
चौथा उद्देशक
१६९ यदि दो मुनियों में से एक वसति में रहता है और एक घूमता १७६४. असिवादिकारणेहिं, अहवा फिडिता उ खेत्तसंकमणे।। है तो दोनों ओर से दोषों की संभावना है। दोष है-स्वलिंग आदि
तत्तियमेत्ता व भवे, दोण्हं वासासु जयण इमा।। की प्रतिसेवना, जो तीन प्रकार की है-आत्मोत्थ, परोत्थ, अशिवादि कारणों से अथवा क्षेत्र संक्रमण करते मार्ग से उभयोत्थ।
भटक गए। (कुछ संयमच्युत हो गए, कुछ कालगत हो गए।) १७५९. सुण्णे सगारि दटुं, संथारे पुच्छ कत्थ समणा उ॥ उतने ही अवशिष्ट रहे अर्थात् दो ही रहे। इस प्रकार वर्षा ऋतु में
सोउं गय त्ति लहुगा, अप्पत्तिय छेद चउगुरुगा॥ दो ही साथ रहे। उनके लिए वर्षा ऋतु की यतना इस प्रकार है।
शून्य वसति को देखकर शय्यातर पूछता है-श्रमण कहां १७६५. एगो रक्खति वसधिं, गए ? श्रमण गए-ऐसा सुनकर उसके मन में अप्रीति न हो तो
भिक्ख वियारादि बितियतो याति। चार लघुमास का प्रायश्चित्त तथा अप्रीति हो जाने पर और द्रव्य
संथरमाणेऽसंथर, आदि का व्यवच्छेद होने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता
निद्दोस्सुवरि ठवित्तुवहिं।
एक मुनि वसति की रक्षा करता है और दूसरा भिक्षा के १७६०. कप्पट्ठग संथारे, खेलणं लहुगो तुवट्ट गुरुगो उ।
लिए तथा बहिर् भूमी आदि में जाता है। यदि पर्याप्त आहार आदि नयणे दहणे चउलहु, एत्तो उ महल्लए वोच्छं।
की प्राप्ति हो जाती है तो यह विधि है। अन्यथा दोनों मुनि भिक्षा के संस्तार अर्थात् उपाश्रय में यदि बालक खेलता है तो एक
लिए घूमते हैं। यदि वसति भयरहित हो तो वे अपनी उपधि को लघुमास और यदि सोता है तो एक गुरुमास तथा चोर उसका
ऊपरी भाग में रखकर बांध दें। अपहरण कर लेता है अथवा आग लगने से वह जल जाता है तो
१७६६. सुत्तेणेवुद्धारो, कारणियं तं तु होति सुत्तं ति। चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। आगे बड़े व्यक्ति के
कप्पो त्ति अणुण्णातो, वासाणं केरिसे खेत्ते॥ त्वग्वर्तनादि के विषय में बताऊंगा।
तीन मुनियों के विहार की अनुज्ञा सूत्र से ही ज्ञात होती है।
परंतु वह सूत्र भी कारणिक-अशिव आदि कारणों से निष्पन्न है। १७६१. तुवट्ट नयणे दहणे, लहुगा गुरुगा हवंतऽणायारे।
वर्षा ऋतु में कैसे क्षेत्र में तीन मुनियों का विहार कल्पता है, यह अह उवहम्मति उवधि, त्ति घेत्तुं हिंडति मासलह॥
यहां अनुज्ञात है। १७६२.उल्ले लहुग गिलाणादिगा य सुण्णे ठवेंति चउलहुगा।
१७६७. महती वियारभूमी, विहारभूमी य सुलभवित्ती य। अणरक्खितोवहम्मति, हडे व पावेंति जं जत्थ॥
सुलभा वसही य जहिं, जहण्णयं वासखेत्तं तु॥ कोई पुरुष शून्य वसति में आकर सो जाता है अथवा
जघन्य वर्षाक्षेत्र वह है-जहां महती विचारभूमी अर्थात् उपकरणों को ले जाता है या जला डालता है तो प्रत्येक क्रिया के
बहिर्गमनभूमी है, जहां महती विहारभूमी-भिक्षानिमित्त लिए चार लघुमास का और वहां अनाचार का सेवन करने पर
परिभ्रमणभूमी है तथा जहां भिक्षावृत्ति और वसति की प्राप्ति चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। उपधि का कोई उपहनन
सुलभ है। करेगा-ऐसा सोचकर मुनि यदि उनको साथ लेकर भिक्षा आदि
१७६८. चिक्खल्ल पाण थंडिल, के लिए घूमता है तो एक लघुमास और यदि वह उपधि वर्षा आदि
वसधी-गोरस-जणाउलो वेज्जो। के कारण भीग जाती है तो चार लघुमास, ग्लान आदि के निमित्त
ओसधनिययाऽहिवती, उस शून्य वसति में गृहस्थ आदि को स्थापित करने पर चार
पासंडा भिक्ख-सज्झाए। लघुमास, साथ न ले जाने पर उस अरक्षित उपधि का कोई
वर्षाकाल के उत्कृष्ट क्षेत्र के १३ गुण हैंउपहनन आदि कर लेता है तो उस निमित्तक प्रायश्चित्त प्राप्त
१. जहां कीचड़ अधिक न हो। होता है।
२. जहां सम्मूर्छनज प्राणियों की अधिक उत्पत्ति न हो। १७६३. गेलण्णमरणसल्ला, बितिउद्देसम्मि वण्णिता पुव्वं ।
३. स्थंडिल भूमीयां अनेक हों। ते चेव निरवसेसा, नवरं इह इंतु बितियपदं॥ ४. वहां रहने के लिए अनेक वसतियां हों। ग्लान्य और सशल्यमरण के विषय में दूसरे उद्देशक में
५. दूध की प्राप्ति सुलभ हो। विस्तार से पहले बताया जा चुका है। वे यहां संपूर्णरूप से ६. कुल जनाकुल हो। व्यक्तव्य हैं। उनके विषय का द्वितीय पद-अपवाद यहां बताया जा ७. वैद्य की उपलब्धि । रहा है।
८. औषध की प्राप्ति। For Private & Personal Use Only
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