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चौथा उद्देशक
१६७ ___ धर्मकथी होने के कारण बार-बार धर्मकथा करना दो-दो भेद हैं-समाप्तकल्प और असमाप्तकल्प। व्याकुलना है। महर्द्धिक व्यक्तियों में विशेष धर्मकथा करना, १७४३. गीतत्थो जातकप्पो, अगीतो खलु भवे अजातो उ। आते-जाते मुनियों द्वारा की जाने वाली आवश्यिकी, नैषेधिकी का
पणगं समत्तकप्पो, तदूणगो होति असमत्तो॥ सम्यक् निरीक्षण करना, मुनियों की आलोचना सुनना, जातकल्प है गीतार्थ और अजातकल्प है अगीतार्थ। प्रतिपृच्छा करने वाले मुनियों को समाधान देना, वादी का निग्रह समाप्तकल्प अर्थात् परिपूर्णसहाय। वह जघन्यतः पांच मुनियों करना, ग्लान व्यक्तियों की आलोचना श्रवण से, भिक्षा की का होता है ऋतुबद्धकाल में और वर्षाकाल में सात परिमाणदुर्लभता के कारण ये सारे व्याकुलना के कारण हैं। कल्पाध्ययन वाला होता है। पांच या सात से न्यून होता है असमाप्सकल्प के पांचवें उद्देशक में व्याकुलना का विस्तृत कथन है।
अर्थात् अपरिपूर्णसहाय। अभिनवरूप में गृहीत नौवें दसवें पूर्व की यदि सतत १७४४. अहवा जातसमत्तो, जातो चेव उ तहेव असमत्तो। स्मारणा न की जाए तो वे नष्ट हो जाते हैं, विस्मृत हो जाते हैं।
अज्जातो य समत्तो, अज्जातो चेव असमत्तो॥ १७३८. असिवादिकारणेणं,उम्मुगणायं ति होज्ज जा दोण्णि। इसकी चतुभंगी इस प्रकार है
सागरसरिसं नवमं, अतिसयनयभंगगुविलत्ता। १. जातकल्प भी समाप्तकल्प भी।
अशिव-मारि आदि कारणों के उत्पन्न होने पर दो मुनियों २. जातकल्प असमाप्तकल्प। का साथ विहार अनुज्ञात है। यहां उल्मुक का उदाहरण जानना ३. अजातकल्प समाप्तकल्प। चाहिए। (जैसे उल्मक अनेक एकत्रित होकर जलती है, वैसे ही ४. अजातकल्प असमाप्सकल्प। मारि आदि भी एक को चपेट में नहीं लेती, अनेक मुनि उसकी (इनमें प्रथम भंग शुद्ध है। शेष में यतना करनी चाहिए।) चपेट में आते हैं।) नौवां-दसवां पूर्व सागरतुल्य तथा अतिशय १७४५. तेसिं जयणा इणमो, नय और विकल्पों से गहन हैं। (अनेक मुनियों के बीच उनका
भिक्खग्गह निक्खमप्पवेसेय। परावर्तन नहीं हो सकता, अतः दो मुनियों का साथ विहार
अणुण्णवणं पि य समगं, अनुज्ञात है।)
बेंति य गिहि देज्ज ओधाणं॥ १७३९. पाहुडविज्जातिसया, निमित्तमादी सुहं च पतिरिक्के। उनकी यतना यह है-एक ही समय में भिक्षाग्रहण के लिए
छेदसुतम्मि व गुणणा, अगीतबहुलम्मि गच्छम्मि॥ निष्क्रमण और प्रवेश तथा एक ही समय में अनुज्ञापन। वे
योनिप्राभृत, विद्यातिशय (आकाशगामिनी आदि शय्यातर के पास आकर एकसाथ कहते हैं-उपाश्रय का विद्याओं), निमित्त आदि (योग, मंत्र आदि) का परावर्तन एकांत उपधान-स्थगन दे। प्रदेश में सुखपूर्वक हो सकता है। अगीतार्थबहुल गच्छ में १७४६. उडुबद्धे अविरहितं, एतं जं तेहि होति साधूहिं। छेदसूत्रों का गुणन-परावर्तन भी नहीं किया जा सकता। (क्योंकि
कारेति कुणति व सयं, गणी वि आलोयणमभिक्खं ।। कुछ मुनि उसको सुनकर विपरिणत हो सकते हैं।)
ऋतुबद्धकाल में आने-जाने वाले साधुओं से वह स्थान १७४०. कयकरणिज्जा थेरा, सुत्तत्थविसारया सुतरहस्सा। अविरहित होता है। गणी-आचार्य दोनों की अवलोकना
__ जे य समत्था वोढुं, कालगताणं उवहिदेहं॥ गवेषणा पुनः-पुनः दूसरे या तीसरे दिन स्वयं करते हैं अथवा १७४१. एय गुणसंपउत्ता, कारणजातेण ते दुयग्गा वि। दूसरों से कराते हैं।
उउबद्धम्मि विहारो, एरिसयाणं अणुण्णातो॥ १७४७. एतेहि कारणेहि, हेमंते प्रिंसु अप्पबीयाणं।
जो कृतकरणीय हैं, स्थविर हैं, सूत्रार्थविशारद हैं, सूत्र धितिदेहमकंपाणं, कप्पति वासो दुवेण्हं पि॥ रहस्यों के ज्ञाता हैं, जो एक मुनि के कालगत हो जाने पर उसकी इन व्याकुलना आदि कारणों से हेमंत तथा ग्रीष्म ऋतु में उपधि और निर्जीव शरीर को वहन करने में समर्थ हैं जो इन आत्मद्वितीय आचार्य अथवा उपाध्याय को धृति और देह से गुणों से संप्रयुक्त हैं, वे किसी कारणवश दो के साथ विहार करते अकंपमान होने के कारण वास कल्पता है, दो-दो से रहना । हैं। इस प्रकार के आचार्य अथवा उपाध्याय का ऋतुबद्ध-काल में कल्पता है। विहार अनुज्ञात है।
१७४८. नियमा होति असुण्णा, १७४२. जातो य अजातो वा, दुविधो कप्पो उ होति नायव्वो।
वसधी नयणे य वण्णिता दोसा। एक्केक्को वि य दुविहो, समत्तकप्पो य असमत्तो॥ दुस्संचर बहुपाणा, कल्प दो प्रकार का ज्ञातव्य है-जात और अजात। दोनों के
वासावासे वि उच्छेदो॥ Jain Education International
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