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चौथा उद्देशक
१७२८. एतद्दोसविमुक्कको, होति गणी भावतो पलिच्छन्नो। ___ दव्वपलिच्छागस्स उ, परिमाणट्ठा इमं सुत्तं॥
तीसरे उद्देशक में कहे गए दोषों से जो विप्रमुक्त होता है वह गणी (आचार्य, उपाध्याय, गणवच्छेदक) होता है। वह नियमतः भावतः परिच्छन्न (सूत्रार्थ तथा तदुभयोपेत) होता है। प्रस्तुत सूत्र द्रव्यतः परिच्छन्न (परिवार, वस्त्रादिक से संपन्न) के परिमाण का बोधक है। १७२९. आदिमसुत्ते दोण्णि वि,
भणिया ततियस्स इह पुणं तेसिं। कालविभागविसेसो,
कत्थ दुवे कत्थ वा तिण्णि || तीसरे उद्देशक के आदिम सूत्र में दो साधर्मिकों के विहरण की बात कही। उन के कालविभाग विशेष की बात कही जाती है। कहां दो और कहां तीन साधुओं के विहार की कल्प-अकल्प विधि का प्रतिपादन किया जा रहा है। १७३०. पारायणे समत्ते, व निग्गतो अस्थतो भवे जोगो।
बहुकायव्वे गच्छे, एगेण समं बहिं ठाति॥
सूत्र और अर्थ तथा तदुभय का पारायण समाप्त हो जाने पर, वह एक मुनि के साथ गच्छ से निर्गत होकर बाहर रह सकता है क्योंकि गच्छ में बहुत वैयावृत्त्य आदि करना होता है और उससे सूत्रार्थ स्मरण में विघ्न आता है।
अन्य सूत्रों के साथ भी अर्थतः योग संबंध है। १७३१. पणगो व सत्तगो वा, कालदुवे खलु जहण्णतो गच्छो।
बत्तीसती सहस्सो, उक्कोसो सेसओ मज्झो॥ कालद्विक-ऋतुबद्ध काल में तथा वर्षाकाल में गण का क्रमशः जघन्य परिमाण पांच और सात का है। दोनों काल में उत्कृष्ट संघ का परिमाण बत्तीस हजार तथा शेष गच्छ मध्यम परिमाण वाला होता है। १७३२. उडुवासे लहु लहुगा, एते गीते अगीत गुरु गुरुगा।
__ अकययुताण बहूण वि, लहुओ लहुया वसंताणं ।। १. ऋतुबद्धकाल में जघन्यतः आचार्य के साथ एक साधु और
गणावच्छेदक के साथ दो साधु-इस प्रकार पांच। वर्षाकाल में जघन्यत आचार्य के साथ दो साधु और गणावच्छेदक के साथ तीन
ऋतुबद्धकाल में गीतार्थ मुनि यदि पांच साधुओं से कम संख्या में विहरण करते हैं तो एक लघुमास का प्रायश्चित्त तथा वर्षाकाल में सात से कम के साथ विहरण करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अगीतार्थ मुनि के लिए एक गुरुमास तथा चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो अकृतश्रुत हैं अर्थात् जिन्होंने सूत्रार्थ तथा तदुभय का सम्यग् ग्रहण नहीं किया है वे यदि बहुत मुनियों के साथ भी विहरण करते हैं तो ऋतुबद्धकाल में एक लघुमास और वर्षाकाल में चार लघुमास के प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। १७३३. एवं सुत्तविरोहो, अत्थे वा उभयतो भवे दोसो।
कारणियं पण सुत्तं, इमे य तहिं कारणा होति।। शिष्य कहता है-इस प्रकार गच्छ-परिमाण की बात कहना सूत्र, अर्थ और तदुभय से विरोध आता है, दोष होता है। आचार्य कहते हैं-यह कारणिक सूत्र है। वे कारण ये हैं१७३४. संघयणे वाउलणा, नवमे पुव्वम्मि गमणमसिवादी।
सागर जाते जयणा, उडुबद्धाऽऽलोयणा भणिता।।
संहनन, व्याकुलना, नौवें पूर्व (का स्मरण), अशिव आदि में गमन, सागर तुल्य नौवां पूर्व, जातकल्प में यतना, ऋतुबद्धकाल में, आलोकना-ये कारण कहे गए हैं। (व्याख्या अगली गाथाओं में।) १७३५. आयरिय-उवज्झाया,संघयणा धितिय जे उ उववेया।
सुत्तं अत्थो व बहुं, गहितो गच्छे य वाघातो।।
आचार्य और उपाध्याय वज्रऋषभनाराच संहनन से तथा वज्रकुड्य समान धृति से युक्त हैं। उन्होंने सूत्र और अर्थ को प्रभूत रूप में ग्रहण किया है परंतु गच्छ में सूत्रार्थ के स्मरण का व्याघात होता है। १७३६. धम्मकहि महिड्डीए, आवास-निसीहिया य आलोए।
पडिपुच्छवादिगहणे, रोगी तह दुल्लभं भिक्खं ।। १७३७. वाउलणे सा भणिता, जह उद्देसम्मि पंचमे कप्पे।
नवम दसमा उ पुव्वा, अभिणवगहिया उ नासेज्जा। साधु-इस प्रकार सात। भगवान् ऋषभ के ज्येष्ठ गणधर पुंडरीक के बत्तीस हजार साधु-साध्वियों का गच्छ था यह उत्कृष्ट संख्या है। शेष परिमाण वाला गच्छ मध्यम होता है।
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