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सानुवाद व्यवहारभाष्य
होती है।
१५६७. जह ते रायकुमारा सलक्खणा जे सुहा जणवयाणं । १५६१. अपवदितं तु निरुद्धे, आयरियत्तं तु पुव्वपरियाए।
संतमवि सुतसमिद्धं, न ठवेंति गणे गुणविहूणं ।। __ इमओ पुण अववादो, असमत्तसुयस्स तरुणस्स॥ जैसे लक्षणयुक्त राजकुमार को राजा के रूप में स्थापित
पूर्वपर्याय के निरुद्ध होने पर आचार्यत्व अपवादस्वरूप करने पर वह जनपदों के लिए कल्याणकारी होता है वैसे ही अनुज्ञात है। असमाप्तश्रुत तरुण मुनि को आचार्यत्व आचार्य भी श्रुतसमृद्ध शिष्य को गणधरपद पर स्थापित करते हैं, अपवादस्वरूप अनुज्ञात है। यह पूर्वसूत्र से इस सूत्र का संबंध है। गुणविहीन शिष्य को नहीं। १५६२. तिण्णी जस्स य पुण्णा,
१५६८. लक्खणजुत्तो जइ वि हु, वासा पुण्णेहि वा तिहि उ तं तु।
समिद्धो सुतेण तह वि तं ठवए। वासेहि निरुद्धेहिं,
तस्स पुण होति देसो, लक्खणजुत्तं पसंसंति॥
असमत्तो पकप्पणामस्स। व्रतपर्याय के तीन वर्ष पूर्ण होने पर अथवा पूर्ण न होने पर जो श्रुतसमृद्ध न होने पर भी लक्षणयुक्त है उस शिष्य को अथवा निरुद्ध होने पर भी (आचार्य के कालगत हो जाने पर) आचार्यरूप में स्थापित किया जाता है। उसके केवल प्रकल्प असमाप्तश्रुत लक्षणयुक्त ही गणधर के रूप में स्थापित होता है। अर्थात् निशीथ का एक देशमात्र असमाप्त होता है। लोग उसकी ही प्रशंसा करते हैं।
१५६९. देसो सुत्तमधीतं, न तु अत्थो अस्थतो व असमत्ती। १५६३. किं अम्ह लक्खणेहिं, तव-संजमसुट्ठियाण समणाणं।
सगणे अणरिहगीताऽसतीय गिण्हेजिमेहिंतो।। गच्छविवड्डिनिमित्तं, इच्छिज्जति सो जहा कुमरो॥ जो प्रकल्प को केवल सूत्रतः अथवा केवल अर्थतः पढ़ता है शिष्य ने कहा-हम तप-संयम में सुस्थित श्रमणों के लिए अथवा अर्थतः पूरा समाप्त नहीं करता, वह प्रकल्प का देशतः लक्षणों से क्या प्रयोजन? आचार्य ने कहा-गच्छ की विवृद्धि के अध्येता है। स्वगण में गीतार्थ होने पर भी अनर्ह हैं- आचार्यपद लिए लक्षणयुक्त गणधर ही इष्ट होता है। जैसे राज्य की विवृद्धि के योग्य नहीं है अथवा गण में गीतार्थ नहीं है तो इनमें से (वक्ष्यमाण लिए लक्षणयुक्त कुमार ही इष्ट होता है।
में से) गीतार्थ को ग्रहण करे। १५६४. बहुपुत्तओ नरवती, सामुदं भणति कंठवेमि निवं। १५७०. संविग्गमसंविग्गे, सारूविय-सिद्धपुत्तपच्छण्णे। दोस-गुण एगऽणेगे, सो वि य तेसिं परिकधेति ।।
पडिकंत अब्भुट्टिते, असती अन्नत्थ तत्थेव।। एक राजा के अनेक पुत्र हैं। वह सामुद्रिक शास्त्रवेत्ता से संविग्न, असंविग्न, सारूपिक (मुनिरूपधारी), प्रच्छन्न पूछता है-मैं किस राजकुमार को राजा के रूप में स्थापित करूं। सिद्धपुत्र (पश्चात्कृत सिद्धपुत्र), जो असंयम से प्रतिक्रांत तथा तब वह शास्त्रविद् राजकुमारों के एक या अनेक गुण-दोष बताता संयम के प्रति अभ्युत्थित हैं, उनके अभाव में अन्यत्र अथवा वहीं।
(इसकी व्याख्या अगले श्लोकों में।) १५६५. निद्भूमगं च डमरं, मारी-दुब्मिक्ख-चोर-पउराइं। १५७१. सगणे व परगणे वा, मणुण्ण अण्णेसि वा वि असतीए। धण-धन्न-कोसहाणी, बलवति पच्चंतरायाणो॥
संविग्गपक्खिएसुं, सरूवि-सिद्धेसु पढमं ति।। ये दोष हैं-१. निधूर्मक-इसके प्रभाव से राज्य में चूल्हा वह अपने गण के गीतार्थ के पास अथवा परगण के मनोज्ञ जलता ही नहीं। २. डमर-राज्य स्वदेशोत्थ विप्लवमय रहता है। सांभोगिक के पास अथवा असांभोगिक के पास तथा उसके ३. मारि ४. दुर्भिक्ष ५. चोरप्रचुर ६. धनहानि ७.धान्य-हानि ८. अभाव में संविग्न पाक्षिकों के पास, उनके अभाव में स्वरूपी कोशहानि तथा ९. प्रत्यन्त राजा बलवान् होंगे। किसी राजकुमार सिद्धपुत्रों से (अध्ययन करे।) में एक, किसी में अनेक और किसी में सारे दोष हैं।
१५७२. मुंडं व धरेमाणे, सिहं च फेडंतऽणिच्छससिहे वि। १५६६. खेमं सिवं सुभिक्खं, निरुवस्सग्गं गुणेहि उववेतं।
लिंगेण मसागरिए, वंदणादीणि न हाति।। ___ अभिसिंचंति कुमार, गच्छे वि तयाणुरूवं तु॥ जो पश्चात्कृत लिंगतः गृहस्थ हैं, उनको अन्यत्र ले जाकर
ये गुण हैं-१. क्षेम २. शिव ३. सुभिक्ष ४. निरुपसर्ग- मुंडन कराकर, उनकी चोटी काटकर, यदि वे चोटी कटाना नहीं कोई एक गुण से, कोई अनेक गुणों से और कोई सभी गुणों से चाहते तो उनको सशिखाक रखकर, श्रमणलिंग देकर, उनके युक्त हैं। राजा उस राजकुमार का अभिषेक करता है जो दोषों प्रति विनय आदि की हानि न करते हुए उनके पास पढ़े। रहित तथा गुणों से युक्त हो। उसी प्रकार गच्छ में भी तथानुरूप १५७३. आहार-उवधि-सेज्जा-एसणमादीसु होति जतितव्वं । मुनि को गणधरपद पर नियुक्त किया जाता है।
अणुमोदण-कारावण, सिक्ख त्ति पदम्मि तो सुद्धो।। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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वह अपन