________________
१५०
सानुवाद व्यवहारभाष्य
१५३७.पुव्विं छम्मासेहिं, परिहारेणं व आसि सोधी तु। पर्याय का वर्णन कर-कथन कर अब यह कहते हैं कि प्रव्रज्या लेने
सुद्धतवेणं निव्वितियादी एण्हिं वि सोधी तु॥ के दिन ही मुनि को आचार्यत्व आदि का भार दिया जा सकता है, पूर्वकाल में छह माह के परिहारतप से अथवा शुद्धतप से यह कैसे? शोधि होती थी। आज निर्विकृतिक आदि से शोधि होती है। १५४४. भण्णति तेहि कयाई, वेणइयाणं तु उवधिभत्तादी। १५३८. किध पुण एवं सोधी,
गुरुबालासहुमादी, गपगारा उवग्गहिता॥ जह पुव्विल्लासु पच्छिमासुं च। आचार्य कहते हैं-शिष्य! वे आचार्य आदि पदयोग्य पुक्खरिणीसुं वत्थादियाणि
वैनयिकों के लिए उपधि और भक्त का उत्पादन कर चुके हैं। तथा
सुज्झंति तध सोधी॥ गुरु, बाल, असहाय आदि का अनेक प्रकार से उपग्रह कर चुके निर्विकृतिक आदि से शोधि कैसे हो सकती है ? आचार्य ने कहा-जैसे प्राचीनकाल की पुष्करिणियों में वस्त्र आदि शुद्ध होते १५४५. ताई पीतिकराई, असई अदुव त्ति होति थेज्जाइं। थे, आज भी पुष्करिणियों में वे शुद्ध होते है, इसी प्रकार शोधि
वेसिय अणवेक्खाए, जिम्ह जढाइं तु विस्संभो।। पूर्वकाल की भांति आज भी होती है।
उन्होंने अनेक कुलों को एक बार ही नहीं किंतु अनेक बार १५३९. एवं आयरियादी, चोद्दसपुव्वादि यासि पुब्विं तु। प्रीतिकर किया है अथवा निरपेक्षतया उन कुलों को विशेष
एण्हिं जुगाणुरूवा, आयरिया होति नायव्वा॥ एषणीय बनाया है, उन्हें मायारहित तथा विश्वसनीय बनाया है। प्राचीनकाल में आचार्य आदि चतुर्दशपूर्वी होते थे। आज १५४६. सव्वत्थअविसमत्तेण, कारगो होति सम्मुदी नियमा। युगानुरूप आचार्य होते हैं, ऐसा जानना चाहिए।
बहुसो य विग्गहेसुं, अकासि गणसम्मुदिं सो उ॥ १५४०. तिवरिसएगट्ठाणं, दोन्नि य ठाणा उ पंचवरिसस्स। उन्होंने उन कुलों को सभी प्रयोजनों के लिए अविषमतया
सव्वाणि विकिट्ठो पुण, वोढुं वा एति ठाणाई।। प्रयोजनकारी बनाया है। अनेक विग्रहों में उन कुलों को गण के त्रिवर्ष श्रमण पर्याय वाले के लिए एक स्थान-उपाध्याय अनुकूल बनाया है तथा स्वयं भी गण-विग्रहों का उपशमन कर लक्षणवाला, पंचवर्ष पर्यायवाले के लिए दो स्थान-आचार्य और। अनुकूल वातावरण का निर्माण किया है। उपाध्याय अनुज्ञात हैं। विकृष्ट अर्थात् आठ वर्ष पर्याय वाला सभी १५४७. थिरपरिचियपुव्वसुतो, सरीरथामावहार विजढो उ। स्थानों का वहन करने में समर्थ होता है। (वे स्थान हैं
पुव्विं विणीतकरणो, करेति सुत्तं सफलमेयं ।। उपाध्यायत्व, आचार्यत्व, गणित्व, प्रवर्तित्व, स्थविरत्व वह स्थिर है। उसके पूर्वश्रुत परिचित है। वह शारीरिक तथागणावच्छेदित्व।
शक्ति का अपलाप नहीं करता। वह पूर्वपर्याय में विनीतकरण१५४१. नोइंदिइंदियाणि य, कालेण जियाणि तस्स दीहेण। अर्थात् संयमयोगों में मन-वचन-काया को लगाए रखता है। ऐसा
__कायव्वेसु बहूसु य, अप्पा खलु भावितो तेणं॥ मुनि ही इस सूत्र को सफल करता है।
जो दीर्घ श्रमण पर्याय (अष्टवर्षीय पर्याय) वाला होता है वह इंद्रियों और नोइंद्रिय पर विजय प्राप्त कर लेता है। बहुत
परियाओ होज्ज तद्दिवसतो उ। कर्तव्यों में उसकी आत्मा भावित होती है। इसलिए सभी स्थान
पच्छाकड सावेक्खो, उसके लिए अनुज्ञात हैं।
सण्णातीहिं बलाणीतो।। १५४२. उस्सग्गस्सऽववादो, होति विवक्खो उ तेणिमं सत्तं। उस मुनि का पूर्व पर्याय निरुद्ध कैसे हुआ और कैसे
नियमेण विकिट्ठो पुण, तस्सासी पुव्वपरियाओ॥ तदिवसभावी पर्याय हुआ? इसका समाधान है कि वह गच्छ
उत्सर्ग सूत्र का विपक्ष होता है अपवाद सूत्र । इसलिए इस सापेक्ष मुनि स्वजनों से बलात् लाया गया था। अपवादसूत्र का कथन है। नियमतः जिसका पूर्व पर्याय विकृष्ट १५४९. पव्वज्ज अप्पपंचम, कुमारगुरुमादि उवधि ते नयणं । अर्थात् बीस वर्ष का था, उसे जिस दिन वह प्रव्रज्या लेता है, उसी
निज्जंतस्स निकायण, पव्वइते तद्दिवसपुच्छा। दिन उपाध्याय अथवा आचार्य के रूप में उद्दिष्ट किया जा सकता एक राजकुमार अपने चार मित्रों-अमात्यपुत्र, पुरोहितपुत्र, है।
सेनापतिपुत्र तथा श्रेष्ठीपुत्र के साथ प्रव्रजित हुआ। आचार्य ने १५४३. चोदेति तिवासादी, पुव्वं वण्णेउ दीहपरियागं। सभी को गुरु आदि पद पर स्थापित कर दिया। राजकुमार को
तद्दिवसमेव एण्हिं, आयरियादीणि किं देह॥ आचार्यपद पर, अमात्यपुत्र को उपाध्यायपद पर, पुरोहितपुत्र को
शिष्य ने पूछा-भंते ! पहले आपने त्रिवर्षीय दीर्घ श्रमण- स्थविरपद पर, श्रेष्ठीपुत्र को गणावच्छेदी के रूप में तथा Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org