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तीसरा उद्देशक
, १५७ निर्विकृतिक की विधि अपनाने पर भी यदि वेदोदय उपशांत नहीं वस्त्र देकर अथवा अन्य प्रकार के वस्त्र देकर उसके साथ होता है तो परदेशगमन कर देना चाहिए।
प्रतिसेवना करे। वह संतान सहित अथवा संतान रहित भी हो १६१८. उम्मत्तो व पलवते, गतो व आणेत्तु बज्झते सिढिलं।। सकती है। यदि वह व्यक्ति ग्राम के अंतर शुक्रनिषेक-संभोग
भावित वसभा मा णं, बंधह नासेज्ज मा दूरं। करता है तो उसे छह गुरुमास का तथा ग्राम के बहिर् संभोग वह उन्मत्त की भांति प्रलाप करता है। कहीं चला जाता है करता है तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि वह स्त्री तो वृषभ मुनि उसे लाकर शिथिल बंधन से बांध देते हैं। वह संतान सहित होती है, उसके साथ ग्राम के अंतर संभोग करता है अन्य साधुओं को यह प्रतीति करा देता है कि वह उन्मत्त है। वे तो मूल तथा ग्राम के बहिर् संभोग करता है तो छेद प्रायश्चित्त वृषभ मुनियों को कहते हैं इसको मत बांधो। बंधन के उद्वेग से आता है। अथवा समानदेशीया शिष्यणी का वर्जन कर प्रागुक्त के यह दूर न भाग जाए।
साथ आनुपूर्वी से प्रतिसेवना करता है, वह भी प्रायश्चित्तभाक् १६१९. गुरु आपुच्छ पलायण, पासुत्तमिगेसु अमुगदेसं ति।
उपसता होता है। मग्गण वसभाऽदितु, भणंति मुक्का मु सेसस्स। १६२४. फासुयपडोयारेण, न यऽभिक्खनिसेव जाव छम्मासा।
जब मृग अर्थात् बाल, शैक्ष आदि मुनि सो जाते हैं तब वह । चउगुरु छम्मासाणं, परतो मूलं मुणेयव्वं॥ 'मैं अमुक देश में जाता हूं' यह आचार्य को पूछकर चला जाता इस प्रकार वह वहां रहता हुआ प्रासुकप्रत्यवतारहै। वृषभ उसकी खोज करते हैं। जब वह नहीं दिखता (मिलता) अप्रासुक स्नान, आहार आदि का वर्जन करता है तथा बार-बार तब वे कहते हैं हम उसको खोजने के शेष कार्यों से- आयास प्रतिसेवना नहीं करता और यदि छह मास के भीतर-भीतर गण में आदि से मुक्त हो गए।
आता है तो उसे चार गुरुमास का तथा छह मास के पश्चात् १६२०. विहरण वायण खमणे वेयावच्चे गिहत्थधम्मकधा। आता है तो मूल प्रायश्चित्त आता है।
वज्जेज्ज समोसरणं, पडिवयमाणो हितट्ठीओ॥ १६२५. आगंतुं अन्नगणं, सोधिं काऊण वूढपच्छित्तो। (परदेश जाते हुए उसको इन स्थानों का परिहार करना
सगणे गणमुब्भामे, दरिसेती ताधि अप्पाणं ।। चाहिए।) वह हितार्थिक मुनि अपने विहरण के स्थानों का, वह मोहचिकित्सा से निवृत्त होकर अन्य गण में शोधि वाचना के स्थानों का तथा जहां झपकत्व किया है, जिन गच्छों में करे-अर्थात् प्रायश्चित्त को वहन करे। वह उद्भ्रामक भिक्षाचरों वैयावृत्त्य किया, जहां गृहस्थ अवस्था में रहा, जहां धर्मकथा की, के ग्राम में स्वगण संबंधी साधुओं को स्वयं की उपस्थिति जहां समवसरण किया इन स्थानों में रहा-इन सबका वर्जन दिखाता है। करे।
१६२६. बेति य लज्जाए अहं, न तरामि गंतु गुरुसमीवम्मि। १६२१. गंतूण अन्नदेसं, वज्जित्ता पुव्ववण्णिते देसे।
न य तत्थ जं कतं मे, निग्गमणं चेव सुमरामि॥ लिंगविवेगं काउं, सढि किढी पण्णवेत्ताणं ।। वह उन्हें कहता है-मै लज्जावश गुरु के समीछ नहीं जा
पूर्व वर्णित (गाथा १६२०) स्थानों का वर्जन कर, अन्यदेश सकता। मैंने वहां जो किया उसकी स्मृति नहीं करता, केवल मुझे में जाकर, लिंग का परित्याग कर (गृहस्थलिंग को स्वीकार कर), निर्गमन की ही स्मृति है। सड्डि-अविरत सम्यगदृष्टिका स्त्री को संभोग के लिए एकांत १६२७. तेहि निवेदिए गुरुणो, गीता गंतूण आणयंति तयं । स्थान में ले जाए।
मिगपुरतो य खरंटण, वसभ निवारेंति मा भूतो॥ १६२२. पण पण्णिगादि किड्विसु,
वे मुनि गुरु के पास जाकर निवेदन करते हैं। गुरु गीतार्थ . किंचि अदेंतो उ अहव अदसादी। मुनियों को भेजकर उसे बुला लेते हैं। गुरु शैक्ष आदि मुनियों के अपया य अंतो छग्गुरु,
समक्ष उसकी खरंटणा करते हैं। तब वृषभ मुनि उस अपराध
बाहि तू चउगुरु निसेगे॥ करने वाले मुनि को निवारित करते हुए कहते हैं-मुने ! पुनः ऐसा १६२३. सपया अंतो मूलं, छेदो पुण होति बाहिरनिसेगे। मत करना।
अणुपुव्विं पडिसेवति, वज्जंत सदेसमादीओ॥ १६२८. कत्थ गतो अणपुच्छा, साधु किलिट्ठा तुमं विमग्गंता। पंचपण्यिका-पांच कपर्दिकाओं में प्रतिसेवना करने वाली
मा णं अज्जो वंदह, तिण्णि उ वरिसाणि दंडो से॥ स्त्री तथा अन्य एकांत स्थान में प्रतिसेवना के लिए ले जाई जाने वे वृषभ मुनि उसे पूछते हैं-तुम गुरु को बिना पूछे कहां
वाली स्त्री के साथ कुछ भी न देते हुए अथवा बिना किनारी के चले गए थे? तुम्हें खोजने का प्रयत्न करने वाले साधुओं को Jain Education International
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