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तीसरा उद्देशक
तदुभयतः । प्रकल्पधारियों की यह चतुर्भंगी है
१. सूत्रधर नोअर्थधर २. नोसूत्रधर अर्थधर ३. सूत्रधर अर्थधर ४. नोसूत्रधर नो अर्थधर
पहले भंगवर्ती 'सूत्रधर नोअर्थधर' को वर्जित कर तीसरे तथा दूसरे भंगवर्ती मान्य हैं।
१५२४. पुव्वं
वण्णेऊणं, दीहं परियागसंघयणसद्धं । दसपुब्बीए धीरे, मज्जाररडिय परूवणया || शिष्य ने पूछा- भंते! पहले आचार्यपद योग्य के लिए दीर्घश्रामण्य पर्याय, विशिष्ट संहनन, उत्तम श्रद्धा, दशपूर्व का ज्ञान तथा धीर-बुद्धिचतुष्टय से युक्त ऐसा वर्णन किया था। (अब जो यह प्ररूपणा की जाती है कि त्रिवर्ष पर्यायवाला आचारप्रकल्पधर तथा पंचवर्ष पर्यायवाला दशाकल्पव्यवहारधर उपाध्याय हो सकता है।) यह प्ररूपणा मार्जाररटित प्ररूपणा के समान है।
१५२५. पुक्खरिणी आयारे, आणवणा तेणगा य गीतत्थे । आयारम्मि उ एते, आहरणा होंति नायव्या ॥ आचार्य विषयक ये चार उदाहरण ज्ञातव्य हैं- पुष्करिणी, आचारप्रकल्पानयन, स्तेनक तथा गीतार्थ । १५२६. सत्थपरिण्णा छक्कायअधिगमं पिंड उत्तरज्झाए ।
रुक्खे व वसभ गावे, जोधा सोही य पुक्खरिणी ॥ शस्त्रपरिज्ञा षट्कायाधिगम, पिंड, उत्तराध्ययन, वृक्ष, वृषभ, गौ, गोधा, शोधि तथा पुष्करिणी। (सभी मिलाने पर ४ +९= १३ उदाहरण हुए।) १५२७. पुक्खरिणीओ पुव्विं, जारिसया तो ण तारिसा एहि ।
तह वियता पुक्खरिणी, हवंति कज्जा य कीरंति ।। प्राचीनकाल में जैसी पुष्करिण्यां थीं आज वैसी नहीं हैं, फिर भी उन पुष्करिणियों से कार्य किए जाते हैं। १५२८. आयारपकप्पे ऊ, नवमे पुव्वम्मि आसि सोधी य । तत्तो च्चिय निज्जूढो, इधाणितो एहि किं न भवे ? ॥ नौवें पूर्व के आचार प्रकल्प से शोधि होती थी, वहीं से निर्यूढ आचारांग का आचारप्रकल्प है। क्या उससे शोधि नहीं होती ?
१५२९. तालुग्घाडिणी ओसावणादि, विज्जाहि तेणगा आसि ।
एहिं ताउ न संती, तधावि किं तेणगा न खलु ॥ प्राचीनकाल में चोरों के पास तालोद्घाटिनी, अवस्वापिनी विद्याएं होती थीं। आज वे विद्याएं नहीं है, फिर भी क्या आज चोर नहीं है?
१. जैसे मार्जार पहले जोर से बोलती है और फिर धीरे-धीरे बोलने लगती है। इसी प्रकार आपने भी आचार्यपदयोग्य की बड़ी-बड़ी विशेषताएं बतलाकर अब बहुत कम विशेषताओं पर आ गए।
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१५३०. पुब्विं चोइसपुब्बी एहि जहण्णो पकप्पधारी उ मज्झिमगकप्पधारी, कह सो उ न होति गीतत्थो । प्राचीन काल में चतुर्दशपूर्वी गीतार्थ होता था। आज जघन्य प्रकल्पधारी अथवा मध्यम प्रकल्पधारी होता है। क्या वह गीतार्थ नहीं होता ?
१५३१. पुब्विं सत्यपरिण्णा, अधीत पढिताइ होउवडवणा
एहि छज्जीवणिया, किं सा उ न होउवट्ठवणा ।। पहले आचारांग के अंतर्गत जी शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन है, उसको अर्थतः तथा सूत्रतः पढ़ लेने पर उपस्थापना दी जाती थी । तो क्या आज वह उपस्थापना वशवैकालिकान्तर्गत षड्जीवनिका को अर्थतः और सूत्रतः पढ लेने पर नहीं दी जा सकती ? १५३२. बितियम्मि बंगचेरे, पंचमउद्देस आमगंधम्मि ।
सुत्तम्मि पिंडकप्पी, इह पुण पिंडेसणा एसो ॥ प्राचीनकाल में आचारांग के दूसरे अध्ययन के पांचवें ब्रह्मचर्याख्य उद्देशक के 'आमगंधी' सूत्र को अर्थतः तथा सूत्रतः पढ़ लेने पर मुनि पिंडकल्पी होता था। आज दशवैकालिक के अंतर्भूत पिंडैषणा को पढ़ लेने पर पिंडकल्पी हो जाता है। १५३३. आयारस्स उ उवरिं, उत्तरायणाणि आसि पुब्विं तु ।
दसवेयालिय उवरिं, इयाणि किं ते न होंति उ ॥ प्राचीन काल में आचारांग के पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ा जाता था, आज दशवेकालिक के पश्चात् उत्तराध्ययन पढ़ा जाता है क्या वे वैसे नहीं होते ?
१५३४. मत्तंगादी तरुवर, न संति एहिं न होंति किं रुक्खा ।
महजूहाहिव दप्पिय, पुव्विं वसभाण पुण एहिं || पूर्व में मत्तंग आदि तरुवर (कल्पवृक्ष) होते थे, आज वे नहीं हैं तो क्या आज अन्यान्य वृक्ष नहीं होते ? पूर्वकाल में महायूथाधिपति दर्पिक वृषभ होते थे। आज वैसे नहीं हैं। १५३५. पुव्विं कोडीबद्धा जूहाओ एहिं न संति ताई, किं जुहाई न होंती उ॥ प्राचीनकाल में नंद, गोप आदि के कोटिबद्ध गाय के यूथ थे आज इतने बड़े यूथ नहीं हैं, फिर भी क्या गायों के यूथ नहीं होते ?
नंदगोवमादीणं ।
१५३६. साहस्सी मल्ला खलु, महपाणा पुब्वि आसि जोहाओ ।
ते तुल्ला नत्थेण्डिं, किं ते जोधा न होंती उ॥ प्राचीनकाल में महाप्राण सहस्रमल्ल योधा होते थे। आज उनके तुल्य योधा नहीं हैं, फिर भी क्या आज योधा नहीं होते ?
आचार्य ने कहा- ठीक है। पहले जो कहा वह यथोक्तन्याय के आधार पर कहा था और अब कालानुरूप प्ररूपणा की जाती है।
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