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सानुवाद व्यवहारभाष्य १५८५. आयरियपिवासाए, कालगतं सोउ ते वि गच्छेज्जा। १५९०. जातं पिय रक्खंती, गच्छेज्ज धम्मसद्धा, व केइ सारेंतगस्सऽसती॥
माता-पिति-सासु-देवरादिण्णं । कुछ तरुण मुनि आचार्य को कालगत सुनकर आचार्य की
पिति-भाति-पुत्त-विहवं, पिपासा अर्थात् आचार्य के बिना ज्ञान-दर्शन-चरित्र का लाभ नहीं
गुरु-गणि-गणिणी य अज्जं पि॥ होता, इस पिपासा से भी अन्यत्र चले जाते हैं। सारणा करने जन्मते ही नारी की रक्षा माता-पिता करते हैं। विवाह के वाले के अभाव में धर्मश्रद्धा भी मंद हो जाती है, मुनि गच्छान्तर पश्चात् सास-ससुर-देवर-पति आदि रक्षा करते हैं। विधवा होने में चले जाते हैं।
पर पिता, भ्राता, पुत्र आदि उसकी रक्षा करते हैं। इसी प्रकार १५८६. माणिता वा गुरूणं, थेरादी तत्थ केइ तू नत्थि।। आर्यिका की रक्षा आचार्य-गणी-उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी-ये
माणं तु ततो अण्णो, अवमाणभया व गच्छेज्जा॥ करते हैं।
कुछ स्थविर मुनि सोचते हैं-हम सदा गुरु द्वारा मान्य रहे १५९१. एगाणिया अपुरिया सकवाडं परघरं तु नो पविसे। हैं, अब कोई अन्य हमें मान देने वाला नहीं है। अतः अपमान के
सगणे व परगणे वा, पव्वतिया वी तिसंगहिता ।। भय से वे अन्यत्र चले जाते हैं।
विवाहिता एकाकिनी नारी पति आदि पुरुष के साथ के १५८७. तम्हा न पगासेज्जा, कालगतं एयदोसरक्खट्ठा। बिना सकपाट परघर में प्रवेश नहीं करती। इसी प्रकार प्रव्रजित
अण्णम्मि ववट्ठविते, ताघि पगासेज्ज कालगंत॥ आर्यिका जो त्रिसंगृहीत अर्थात् आचार्य, उपाध्याय तथा प्रवर्तिनी इसलिए इन दोषों की रक्षा के लिए आचार्य के कालगत द्वारा संगृहीत होने पर स्वगण अथवा परगण में एकाकिनी नहीं होने की बात प्रकाशित न करे। अन्य गणधर (आचार्य) की जाती। स्थापना कर देने पर पूर्व आचार्य के कालगत होने की बात १५९२. आयरिय-उवज्झाया, सततं साहुस्स संगहो दुविहो। प्रकाशित करे।
आयरिय-उवज्झाया, अज्जाण पवत्तिणी ततिया। १५८८. दूरत्थम्मि वि कीरति, पुरिसे गारव-भयं सबहुमाणं। साधु के सतत संग्रह-संग्राहक दो प्रकार का होता
छंदे य अवटुंती, चोदेउं जे सुहं होति॥ है-आचार्य और उपाध्याय। आर्यिकाओं का संग्राहक आचार्य,
पुरुष अर्थात् आचार्य या उपाध्याय दूरस्थ रहने पर भी । उपाध्याय तथा तीसरी प्रवर्तिनी होती है। स्वपक्ष-परपक्ष वाले श्रमणियों के प्रति गौरव, भय तथा बहुमान १५९३. बितियपदे सा थेरी, प्रदर्शित करते हैं। जो श्रमणी प्रवर्तिनी के अनुशासन में नहीं
जुण्णा गीता य जदि खलु भविज्जा। चलती उस पर आचार्य और उपाध्याय के भय से सहजरूप में
आयरियादी तिण्ह वि, अनुशासन किया जा सकता है। (आचार्य-उपाध्याय के संग्रहण
असतीय न उद्दिसावेज्जा। में यह गुण है।
अपवाद पद में वह आर्यिका यदि स्थविरा, जीर्ण१५८९. मिधोकहा झड्डर-विड्डरेहि,
चिरकाल प्रव्रजित है तथा गीतार्थ है तो आचार्य आदि तीनों के कंदप्पकिड्डा बुकसत्तणेहिं।। अभाव में भी उसके लिए किसी संग्राहक को उद्दिष्ट करने की पुव्वावरत्तेसु य निच्चकालं,
आवश्यकता नहीं होती। __संगिण्हते णं गणिणी सधीणा॥ १५९४. नवतरुणो मेहुण्णं, कोई सेवेज्ज एस संबंधो। प्रवर्तिनी के अभाव में आर्यिकाएं परस्पर भक्तकथा आदि
अब्बंभरक्खणादिव्व, संगहो एत्थ विसए व॥ करने लग जाती हैं, वे कुंटल-विंटल आदि कंदर्पक्रीडा तथा कोई नव, तरुण आदि मुनि (संयम से उत्प्रव्रजित होकर) बकुशत्व-शरीर तथा उपकरणों की विभूषा करने लग जाती हैं। मैथुन सेवन करले और पुनः प्रव्रजित हो जाए (उसको आचार्यत्व प्रवर्तिनी उन स्वाधीन आर्यिकाओं का सदा पूर्व तथा अपररात्री में आदि उद्दिष्ट कैसे किया जाता है, उसकी विधि इस सूत्र में है।) निग्रह करती हैं।
यही सूत्र के साथ संबंध है। अथवा अब्रह्म की रक्षा के निमित्त १५८९/१. जाता पितिवसा नारी, दिण्णा नारी पतिव्वसा। आचार्य आदि का संग्रह किया जाता है, यह पूर्वसूत्र में प्रतिपादित
विहवा पुत्तवसा नारी, नत्थि नारी सयंवसा॥ किया था। इस सूत्र में वही संग्रह प्रतिपादित है।
जन्मते ही नारी (बालिका) पिता के वश में, परिणीत होने १५९५. अपरीयाए वि गणो, दिज्जति वुत्तं ति मा अतिपसंगा। पर पति के वश में तथा विधवा होने पर पुत्र के वश में होती है।
सेवियमपुण्णपज्जय, दाहिंति गणं अतो सुत्तं। इस प्रकार नारी कभी स्ववशा नहीं होती।
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