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दूसरा उद्देशक
करता है (क्षिप्तचित्त तो मौन भी रहता है।) ११२४. इति एस असम्माणो, खित्तोऽसम्माणतो भव दित्तो । अग्गी व इंधणेर्हि, दिप्पति चित्तं इमेहिं तु ॥ क्षिप्तचित्त होने का एक कारण है-असम्मान और दीप्तचित्त होने का कारण है विशिष्ट सम्मान की प्राप्ति जैसे ईंधन से अनि दीप्त होती है वैसे ही दीसचिन का मन इन कारणों से दीप्त होता है।
११२५. लाभमदेण व मत्तो, अथवा जेऊण दुज्जए सत्तू वित्तम्मि सातवाहण, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ लाभमद से मत्त अथवा दुर्जय शत्रुओं को जीत लेने पर व्यक्ति दीप्तचित्त हो जाता है। दीप्त विषयक दृष्टांत है राजा सातवाहन का। उसको मैं संक्षेप में कहूंगा। ११२६. मथुरा दंडाऽऽणती,
निग्गत सहसा अपुच्छिउं कतर ।
तस्स व तिक्खा आणा,
दुधा गता दो वि पाहेउ ।। अक्षरार्थ का विवरण - राजा सातवाहन ने दंडनायक को मथुरा ग्रहण के लिए आज्ञा दी। वे दंडनायक कौन सी मथुरा ग्रहण करनी है, यह पूछे बिना ही सहसा वहां से चल पड़े। राजा की आज्ञा तीक्ष्ण कठोर थी। तब दंडनायक ने अपनी सैन्य टुकड़ी को दो भागों में विभक्त कर, एक को दक्षिण मथुरा की ओर और दूसरी को उत्तर मथुरा की ओर भेजा। दोनों मथुराओं पर अधिकार कर वे आए।
११२७. सुतजम्म महुरपाडण, निहिलंभनिवेयणा जुगव दित्तो । सयणिज्जखंभकुडे, कुट्टेइ इमाइ पलवंतो ॥ पुत्रोत्पत्ति, दोनों मथुराओं का पतन तथा निधि का लाभ ये तीनों वृतांत राजा सातवाहन को एक साथ निवेदित किए गये। अतिहर्ष के कारण राजा दीसचित्त हो गया। अब वह शयनीय, स्तंभ और भींत को पीटता हुआ यह प्रलाप करने लगा११२८. सच्चं भण गोदावरि पुब्वसमुद्देण साधिता संती । साताहणकुलसरिसं, जदि ते कूले कुलं अस्थि ॥ ११२९. उत्तरतो हिमवंतो दाहिणतो सातवाहणो राया। समभारभरक्कंता, तेण न पल्हत्थए पुढवी ॥ ११३० एताणि य अन्नाणि य पलविययं सो अभाणियव्वाह । कुसलेण अमच्चेणं, खरगेणं सो उबारण ॥ हे गोदावरी नदी! तुम पूर्व समुद्र से मर्यादित की गई हो ( वहां तक तुम्हारा फैलाव है।) तुम सही सही बताओ कि तुम्हारे तट पर सातवाहन राजा के कुल जैसा कोई कुल है?
उत्तर दिशा में हिमवंत पर्वत है और दक्षिण दिशा में
१. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य, परिशिष्ट ८ ।
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सातवाहन राजा है। इसीलिए समान भार से भाराक्रांत पृथ्वी उलटती नहीं (यदि मैं सातवाहन दक्षिण में न होऊं तो पृथ्वी का संतुलन नहीं रह सकता। वह उलट जाएगी।)
इस प्रकार वह अन्य अकथनीय प्रलाप करने लगा। कुशल अमात्य खरक ने उपाय से उसे प्रतिबोध दिया। ११३१. विद्दवितं केणं ति य, तुब्भेहिं पायतालणा खरए ।
कत्थ त्ति मारितो सो, दुट्ठ त्ति य दंसणे भोगा || राजा चिल्लाने लगा, ये स्तंभ आदि किसने नष्ट किए हैं ? खरक अमात्य ने कहा- तुमने। राजा ने कुपित होकर उसे पैरों से ताड़ित किया। एक दिन राजा ने पूछा- अमात्य कहां है? लोगों ने कहा- उसे मार डाला। राजा ने सोचा, मैंने यह ठीक नहीं किया। राजा स्वस्थ हो गया। अमात्य को लाकर राजा को दिखाया । राजा ने विपुल भोगसामग्री दी । ११३२. महज्झयण भत्त खीरे,
कंबलग-पडिग्गहे फलग सड्ढे ।
पासादे कप्पट्टे,
वादं काऊण वा दित्तो ।।
मैंने महान् अध्ययन सीख लिया। मुझे उत्कृष्ट भक्त, क्षीर, कंबल, पात्र, फलक, श्रावक, प्रासाद (उपाश्रय), शिष्य-ये मुझे प्राप्त हुए हैं तथा वाद में मैंने विजय प्राप्त की है-इन सबके लाभ से हर्षित होकर दीप्तचित्त हो जाता है।
११३३. पुंडरियमादियं खलु अज्झयणं कहिऊण दिवसेणं । हरिसेण दित्तचित्तो, एवं होज्जहि कोई उ॥ एक दिन में पौंडरीकादि अध्ययन मैंने पढ़ लिया- कोई इस हर्ष से दीप्तचित्त हो जाता है।
११३४. दुल्लभदव्ये वेसे, पडिसेधितगं अलद्धपुव्वं वा । आहारोवधिवसधी, अहुण विवाहो व कप्पट्ठो ॥ जो जिस प्रदेश में दुर्लभ द्रव्य हो, जो और किसी को प्राप्त न हुआ हो उसका उपभोग कर कोई दीसचित हो जाता है। इसी प्रकार आहार, उपधि, वसति तथा तत्काल विवाहित ईश्वरपुत्र को शिष्यरूप में प्राप्तकर कोई दीप्तिचित्त हो जाता है। ११३५. दिवसेण पोरिसीय व तुमए ठवियं इमेण अद्वेण ।
एतस्स नत्थि गव्यो, दुम्मेधतरस्स को तुझं ॥ जो पढ़ने के मद से दीप्तचित्त हुआ है, उसके प्रति यह यतना है उसके दूसरे मुनि को खड़ाकर कहा जाता है, तुमने एक दिन में अथवा एक प्रहर में पौंडरीक आदि अध्ययन पढ़ा है, परंतु इसने आधे दिन में अथवा अर्द्ध प्रहर में उसको अर्थसहित सीख लिया है। इसको कोई गर्व नहीं है। तुम इससे मंदबुद्धि हो, फिर तुमको गर्व कैसा ?
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