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दूसरा उद्देशक भोजन का वर्जन होता है, शेष आलापन आदि का वर्जन नहीं होता। १३४२. दिज्जति सुहं च वीसुं, तवसोसियस्सय जं बलकरं तु।
पुणरवि य होति जोग्गो,अचिरा दुविहस्स वि तवस्स॥
जब वह पृथक् भोजन करता है तब तपस्या से शोषित उसके शरीर को देखकर सभी मुनि सुखपूर्वक उसे बलवर्धक आहार देते हैं। वे यह सोचते हैं कि यह मुनि शीघ्र ही दोनों प्रकार के तप-परिहारतप तथा शुद्धतप को वहन करने में पुनः योग्य हो जाएगा। १३४३. एसा बूढे मेरा, होति अवूढे अयं पुण विसेसो।
सुत्तेणेव निसिद्धे होति अणुण्णा उ सुत्तेण॥
जो परिहारतप का वहन करता है, उसकी मर्यादा पूर्वसूत्र में प्रतिपादित है। जो वहन नहीं करता उसके लिए प्रस्तुत सूत्र में यह विशेष मर्यादा है। सूत्र से निषिद्ध उसी सूत्र से अनुज्ञात भी होती
१३४४. किह तस्स दाउ किज्जति,
चोदग। सुत्तं तु होति कारणियं। सो दुब्बलो गिलायति,
तस्स अवाएण देंतेवं॥ शिष्य प्रश्न करता है कि परिहारकल्पस्थित को अशन । आदि देना कैसे कल्पता है ? आचार्य कहते है-वत्स! यह सूत्र कारणिक के प्रसंग में प्रवृत्त है। वह दुर्बल होने के कारण रोगग्रस्त होता है। इस उपाय से उसे आहार आदि दिया जाता है। १३४५. तवसोसियस्स मज्झो, ततो व तब्भावितो भवे अधवा।
थेरा णाऊणेवं, वदंति भाएहि तं अज्जो॥ १३४६. परिमित असती अण्णो,
सो विय परिभायणम्मि कुसलो उ। उच्चूरपउरलंभे,
__ अगीतवामोहणनिमित्तं॥ परिहारकल्पस्थित तपःशोषित शरीर वाले मुनि के मन में विकृति खाने की इच्छा उत्पन्न हो जाए अथवा पहले से ही उसका शरीर विकृति से भावित रहा हो, परिमित विकृति-लाभ होने पर, अन्य परिभाजनकुशल (दान-प्रदान में कुशल) मुनि की अविद्यमानता में, उस परिभाजनकुशल परिहारतप में संलग्न भिक्षु की स्थिति को स्वयं जानकर उस पर अनुग्रह कर स्थविर कहते है-आर्य! तुम मुनियों को भोजन परोसो। अथवा विकृति आदि नानाविध पदार्थों का प्रचुर लाभ होने पर अगीतार्थ मुनियों के व्यामोह को दूर करने के लिए वे स्थविर उस परिहारतपः स्थित साधु को कहते है-आर्य! तुम साधुओं को परिभाजित करो-आहार का दान-प्रदान करो।
१३४७. परिभाइयसंसटे, जो हत्थं संलिहावइ परेण।
फुसति व कुड्ढे छड्डे, अणणुण्णाए भवे लहुओ।।
आचार्य की अनुज्ञा से साधु को आहार देने पर हाथ संश्लिष्ट होते हैं, उनको दूसरे को चटाने पर, लिप्त हस्त से भींत आदि का स्पर्श करने पर अथवा काष्ट से उस लेप को निकालने पर अथवा अननुज्ञात अवस्था में स्वयं हाथ को चाटने पर-इन सब क्रियाओं में एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। १३४८. कप्पति य विदिण्णम्मी, चोदगवयणं च सेससूवस्स।
एवं कप्पति उप्पायणं च कप्पट्ठिती चेसा॥
अनुज्ञा देने पर वह हाथ को चाट सकता है। शिष्य का प्रश्न है कि परिहारतप वाले को विकृति का अनुज्ञापन कैसे ? आचार्य कहते हैं-शेष सूपकार की भांति। इसी प्रकार आचार्य को ग्लान को तृप्त करने के लिए अनुज्ञा देना कल्पता है। यह कल्पस्थिति है। १३४९. एवतियाणं भत्तं करेहि, दिण्णम्मि सेसयं तस्स।
इय 'भोइय पज्जत्ते, सेसुव्वरियं च देंतस्स।
एक सूपकार को आदेश दिया-तुम इतने चावलों का भक्त बनाओ और इतने व्यक्तियों को भोजन कराओ। उतने व्यक्तियों को भोजन देने के पश्चात् जो शेष सामग्री (भक्त) बचता है वह सूपकार का होता है। इसी प्रकार आचार्य के आदेशानुसार पर्याप्त मुनियों को भोजन कराने के पश्चात् जो शेष बचता है वह पारिहारिक को देते हैं। १३५०.दव्वप्पमाणं तु विदित्तु पुव्वं, थेरा सि दापति तयं पमाणं।
जुत्ते वि सेसं भवती जहाउ, उच्चूरलंभे तु पकामदाणं ।।
आचार्य पहले द्रव्य प्रमाण को जानकर उस पारिहारिक को वह द्रव्य-प्रमाण दिखा दे। उपयुक्त प्रमाण में द्रव्य का नियोजन होने पर भी नाना प्रकार के द्रव्यों की प्राप्ति के कारण शेष बचता ही है। तब प्रकामदान अर्थात् जिसको जितना चाहे उसे उतना दे-ऐसी आचार्य की अनुज्ञा होती है। १३५१. आदाणाऽवसाणेसु, संपुडितो एस होति उद्देसो।
एगाहिगारियाणं, वारेति अतिप्पसंगं वा।। यह उद्देशक आदि और अंत में संपुटित है अर्थात् आदि और अंत में दो-दो सूत्र साधर्मिकाधिकार के प्रतिपादक हैं। अथवा एकाधिकारिक जो-जो सूत्र हैं, उनमें अतिप्रसंग का वारण करता है। यह इसका पूर्व सूत्र से संबंध है। १३५२. सपडिग्गहे परपडिग्गहे, य बहि पुव्व पच्छ तत्थेव।
आयरिय-सेहऽभिग्गह, समसंडासे अहाकप्पो।। पारिहारिक वसति के बाहर भिक्षा के लिये जाता हुआ पहले अपने पात्र में अपने लिए, फिर परपात्र में आचार्य के लिए अथवा एक ही पात्र में दोनों के लिए भिक्षा लाता है। आचार्य,
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