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तीसरा उद्देशक
१४५ १४७०. अधवा न लभति उवरिं,
१४७५. सगणे थेरा ण संति, तिगथेरे वा तिगं उवठ्ठाति। हेट्ठिच्चिय लभति तिण्णि तिण्णेय।
सव्वाऽसति इत्तिरिय, धारेति न मेलितो जाव।। तिण्णि तल्लाभ-परलाभ,
स्वगण में स्थविर न हों तो त्रिक-कुल, गण और संघ के तिण्णि दासक्खरे णातं। स्थविरों को पूछे। उनके पास जाकर कहे-आप मुझे आचार्यत्व अथवा आभवन शिष्य को उपरितन तीन पुरुषयुग प्राप्त
की अनुज्ञा दें। यदि तीनों के स्थविर न मिले तो स्वयं गण की नहीं होते। अधस्तन तीन पुरुषयुग ही उसे प्राप्त होते हैं।
इत्वरिक (अल्पकालिक आचार्यत्व की) दिशा को धारण करे, पूर्वभणित अधस्तन तीन पुरुषयुगों से अन्यान्य भी अधस्तन जब तक वह कुल आदि स्थविरों के द्वारा गण को प्राप्त न कर ले। तीन पुरुषयुगों का परलाभ-त्रय तथा पुत्र-पौत्र लक्षणवाला . १४७६. जे उ अधाकप्पेणं, अणणुण्णातम्मि तत्थ साहम्मी। आत्मलाभ-सभी मिलाकर सात पुरुषयुग-उसके आभाव्य होते
विहरंति तमट्ठाए, न तेसि छेदो न परिहारो। हैं। इसमें दास और खर का उदाहरण ज्ञातव्य है-'मेरे दास ने
जो साधर्मिक मुनि यथाकल्प अर्थात् श्रुतोपदेश से सूत्र गधा खरीदा है। वह दास मेरा है इसलिए गधा भी मेरा है।'
और अर्थ की प्राप्ति के लिए अनुज्ञात गच्छ में विहरण करते हैं, १४७१.दुहओ वि पलिच्छन्ने,अप्पडिसेधो त्ति मा अतिपसंगा।
उन्हें प्रायश्चित्त स्वरूप न छेद आता है और न परिहार। (क्योंकि धारेज्ज अणापुच्छा गणमेसो सुत्तसंबंधो।।
वे श्रुतोपदेश से सूत्र तथा अर्थ के लिए वहां उपसंपन्न हुए हैं, जो आचार्य द्विधा-द्रव्यतः और भावतः परिच्छदों से
विषय लोलुपतावश नहीं।) सहित है उसके गणधारण करने का कोई प्रतिषेध नहीं है।
१४७७.भावपलिच्छायस्स उ, परिमाणट्ठाय होतिमं सुत्तं । स्थविरों को पूछकर गणधारण करने की बात अतिप्रसंग न हो
सुतचरणे उ पमाणं, सेसो य हवंति जा लद्धी।।
भाव परिच्छद के परिमाण का प्रतिपादन करने के लिए यह जाए इसलिए स्थविरों के बिना पूछे ही गणधारण करने का प्रतिषेध है। यह सूत्रसंबंध है।
सूत्र है। इससे श्रुत और चरण से प्रमाण कहा गया है। शेष जो
आचार्य और उपाध्याय की लब्धियां होती हैं उनका भी ९४७२. काउं देसदरिसणं, आगतऽठवितम्मि उवरता थेरा।
प्रतिपादन किया जाता है। असिवादिकारणेहिं, व ठावितो साधगस्सऽसती॥
१४७८. एक्कारसंगसुत्तत्थधारया नवमपुव्वकडजोगी। १४७३. सो कालगते तम्मि उ,
बहुसुत-बहुआगमिया, सुत्तत्थविसारदा धीरा॥ गते विदेसम्म तत्थ व अपुच्छा।
१४७९. एतग्गुणोववेता, सुतनिघसा णायगा महाणस्स। थेरे धारेति गणं,
आयरिय-उवज्झाए, पवत्ति थेरा अणुण्णाता।। भावनिसटुं अणुग्धाता॥
जो ग्यारह अंगों के सूत्रार्थ धारक हैं, जो नवमपूर्व के धारक देश-दर्शन कर भिक्षु आया। उसने देखा कि स्थविर
हैं (समस्त पूर्वसूत्र के धारक), कृतयोगी, बहुश्रुत, बहुत आगमों
के आचार्य अपने पद पर किसी को स्थापित किए बिना कालगत हो
के अवधारक, सूत्रार्थविशारद, धीर अर्थात् चार प्रकार की गए हैं। अशिवादि के कारणों से अथवा साधक के अभाव के
बुद्धियों से अन्वित-इन गुणों से जो सहित हैं, जो श्रुतनिघर्ष कारण आचार्य पद दिया नहीं जा सका और जो योग्य है वह
(स्वसमय और परसमय के परीक्षक) हैं, जो नायक विदेश में हैं, वह भावनिसृष्ट-आचार्य द्वारा अनुज्ञात होने पर भी
हैं-स्वगच्छवर्ती मुनियों के स्वामी हैं, महाजन अर्थात् समस्त स्थाविरों को बिना पूछे यदि गण को धारण करता है तो उसे ।
संघ के आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर तथा गणावच्छेदी अनुद्घात अर्थात् चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है।
द्वारा अनुज्ञात हैं। १४७४. सयमेव दिसाबंधं, अणणुण्णाते करे अणापुच्छा।
१४८०. आचारकुसल-संजम-पवयण-पण्णत्ति-संगहोवगहे। थेरेहि य पडिसिद्धो, सुद्धा लग्गा उवेहंता॥
अक्खुयअसबलऽभिन्न संकिलिट्ठायारसंपण्णे॥ जो भिक्षु पूर्व आचार्य द्वारा अनुज्ञात होने पर भी स्थविरों
आचारकुशल, संयमकुशल, प्रवचनकुशल, प्रज्ञप्तिकुशल, को पूछे बिना स्वयं दिग्बंध (आचार्यपद ग्रहण करना) कर लेता है
संग्रहकुशल, उपग्रहकुशल तथा अक्षताचारसम्पन्न, अशबला. तो स्थविरों को प्रतिषेध करना चाहिए। यदि प्रतिषेध करने पर भी चारसम्पन्न, असंक्लिष्टाचारसंपन्न-इन शब्दों की व्याख्या वह निवर्तित नहीं होता है तो स्थविर शुद्ध है तथा वह चतुर्गुरुक १४८८/१ से १५२२ तक। प्रायश्चित्त का भागी होता है। यदि स्थविर उपेक्षा करते हैं तो वे १४८१. अब्भुट्ठाणे आसण, किंकर अब्भासकरणमविभत्ती। उपेक्षा प्रत्ययिक चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।
पडिरूवजोगजुंजण, नियोगपूजा जधाकमसो॥ For Private & Personal Use Only
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