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तीसरा उद्देशक
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शिल्प से तथा शरीर से, वे सारे अनर्ह हैं।
दीक्षा के पश्चात् भी कई मुनि अंग-विकल हो जाते हैं। जाति से जुंगिक
उनको भी आचार्य बनाना नहीं कल्पता। आचार्य पद पर रहते पाण-जो गांव या नगर में घर के अभाव में गांव या नगर के अंगविकल हो जाने पर उन्हें चाहिए कि वे अपने शिष्य को बहिर्भाग में रहते हैं।
स्थापित करें तथा स्वयं को गुप्त रखें, जैसे काणक (चुराई हुई) डोंब-जो गीत गाकर जीवन चलाते हैं।
महीष को निम्नप्रदेश-गुप्त वनगहन में रखा जाता है। किणिक-जो वादित्रों को मढ़ते हैं। वध्य के आगे-आगे १४५३. गणि अगणी वा गीतो, जो व अगीतो वि आगितीमंतो। वाद्य बजाते हैं।
लोगे स पगासिज्जति, हावेंति न किच्चमियरस्स। श्वपाक-चांडाल, जो कुत्तों को पका कर खाते हैं।
जो गणी है अथवा जो अगणी है अथवा जो गीतार्थ है १४४९.पोसग-संवर-नड-लंख वाह-मच्छंध-रयग-वग्गुरिया। अथवा जो अगीतार्थ है, परंतु आकृतिमान है, उसे लोगों के समक्ष
पडगारा य परीसह, सिप्प-सरीरे य वोच्छामि।। आचार्य के रूप में प्रकाशित किया जाता है। किंतु इतर अर्थात् कर्म से जुंगिक
जुंगिक आचार्य को लोगों के समक्ष प्रकाशित नहीं किया जाता पोषक-स्त्री, कुक्कुट, मयूर आदि का पोष करने वाले। और उनका (जुंगिक आचार्य का) सारा कृत्य उचित रूप से संवर-स्तानिक, शोधक।
संपादित किया जाता है, उसकी हानि नहीं की जाती। नट-नट विद्या के जानकार।
१४५४. एते दोसविमुक्का, वि अणरिहा होतिमे तु अण्णे वि। लंख-बांस आदि पर नृत्य करने वाले।
अच्चाबाधादीया, तेसि विभागो उ कायव्वो।। व्याध-शिकारी।
इन दोषों से विप्रमुक्त मुनि भी गण धारण के लिए अनर्ह मत्स्यबंध-मच्छीमार।
होते हैं तथा दूसरे भी अनर्ह होते हैं, जैसे-आबाधा वाले उनका रजक-धोबी।
पृथक् रूप से वर्णन करना चाहिए। वागुरिक-मृगजाल से जीविका करने वाले।
१४५५. अच्चाबाध अचायते, नेच्छती अप्पचिंतए। शिल्प से जुंगिक
एकपुरिसे कहं निंदू, कागबंझा कधं भवे ?।। पटकार-चर्मकार।
अत्याबाध, अशक्त, इच्छारहित तथा आत्मचिंतक ये परीषह-नापित।
चारों पुरुष अनर्ह माने जाते हैं तथा ये भी अनर्ह होते अब मैं शरीर से जुंगिक के विषय में कहूंगा।
हैं-एकपुरुष, निंदू, काकी तथा बंध्या। शिष्य ने पूछा ये कैसे होते १४५०. हत्थे पादे कण्णे, नासे उद्वेहि वज्जियं जाणे।
वामणग मडभ कोढिय, काणा तध पंगुला चेव।। १४५६. अच्चाबाहो बाधं, मन्नति बितिओ धरेउमसमत्थो। हाथ, पैर, कान, नासिका, होठ-इन अवयवों से वर्जित
ततिओ न चेव इच्छति, तिण्णि वि एते अणरिहा उ॥ व्यक्ति शरीर-मुंगिक होता है, जैसे
५६. अत्याबाध वह होता है जो गच्छ के उपग्रह को बाधा वामनक-हीन हाथ-पैर आदि से युक्त।
मानता है। दूसरा गण को धारण करने में स्वयं को असमर्थ मडभ-कुब्ज।
मानता है। तीसरा गण को धारण करना नहीं चाहता। ये तीनों कोढी-कुष्टव्याधि से ग्रस्त
अनर्ह होते हैं। काना-एकाक्षी।
१४५७. अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवन्जिस्सं ति अत्तचिंतो उ। पंगुल-पादशक्ति से विकल।
जो वा गणे वसंतो, न वहति तत्ती उ अन्नेसिं ।। १४५१. दिक्खेउं पिन कप्पति,जुंगिता कारणे वि अदोसा वा। आत्मचिंतक वह होता है जो यह मानता है कि मैं
अण्णायदिक्खिते वा, णाउं न करेंति आयरिए। अभ्युद्यतविहार-जिनकल्प अथवा यथालंदकल्प धारण करूंगा।
चारों प्रकार के जुंगिक दीक्षा के लिए भी अकल्पनीय हैं। अथवा जो गण में रहता हुआ भी अन्य मुनियों की चिंता को वहन तथाविध कारण उत्पन्न होने पर निर्दोष को दीक्षा दी जा सकती नहीं करता, वह भी आत्मचिंतक है। है। अज्ञात अवस्था में यदि जुंगिक को दीक्षित कर दिया जाता है, १४५८. एवं मग्गति सिस्सं, पणढे मरंति विद्धसंते वा। फिर ज्ञात होने पर उनको आचार्य नहीं बनाया जाता।
सत्तमयस्स वि एवं, नवरं पुण ठायते एगो॥ १४५२. पच्छा वि होति विकला, आयरियत्तं न कप्पती तेसिं। (पूर्व के चार व्यक्ति ५६, ५७) तथा पांचवां व्यक्ति है एकसीसो ठावेतव्वो, काणगमहिसो व निण्णम्मि॥ पुरुष। वह एक शिष्य की मार्गणा करता है। निंदू वह होता है For Private & Personal Use Only
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