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सानुवाद व्यवहारभाष्य
१४३६. परवादी उवसग्गे, उप्पण्णे सूर आवई तरति। १४४३. एवं परिक्खितम्मी, पत्ते दिज्जति अपत्ति पडिसेहो। अद्धाणे तेणमादि, ओरस्सबलेण संतरति ।।
दुपरिक्खितपत्ते पुण, वारिय हातिमा मेरा || परवादी, उपसर्ग तथा आपत्ति के आने पर जो सूर-अभय - इस प्रकार परीक्षा करने पर जो पात्र होता है उसको गण होता है वह इन सबका पार पा जाता है। मार्ग में चोरों को अपने का भार दिया जाता है तथा अपात्र का प्रतिषेध किया जाता है। औरसबल से जीत लेता है।
यदि दुःपरीक्षित पात्र को गण सौंपा जाता है तो गण के सदस्य १४३७. अब्भुदए वसणे वा, अखुब्भमाणो उ सत्तिओ होति।। शिथिल हो जाते हैं। वे सामाचारी की हानि करते हैं। वहां यह
आवति कुलादिकज्जेसु, चेव ववसायवं तरति॥ मर्यादा करनी चाहिए अर्थात् इस विधि का प्रयोग करना चाहिए। १४३८. कायव्वमपरितंतो, काउं वि थिरो अणाणुतावी तु। १४४४. दिह्रो व समोसरणे, अधवा थेरा तहिं तु वच्चंति। थोवा तो विदलंतो, चियाग य वंदणसीलो उ॥
परिसा य घट्ठ-मह चंदणखोडी खरंटणया॥ अभ्युदय अथवा कष्ट दशा में अक्षुब्ध रहने की जिसमें (पूर्वोक्त विधि यह है-) आचार्य समवसरण-साधुओं के शक्ति होती है, प्राप्त कुल, संघ आदि के कार्यों में जो एकत्रित हुए स्थान में जाते हैं। अथवा स्थविर उस गच्छ में जाते व्यवसायवान्-उद्यमशील होता है, जो करणीय को करने में स्थिर हैं। वहां वे मुनि-परिषद् में घृष्ट, पुष्ट मुनियों को देखकर होता है-परितप्त नहीं होता, जो कार्य करने के बाद अननुतापी चंदनखोडि के दृष्टांत से उनकी खरंटना करते है। होता है, जो थोड़े से थोड़ा देता हआ भी दानशील होता है तथा १४४५. इंगालदाह खोडी, पविसे दिवा उ वाणिएणं तु। जो वंदनशील होता है-ऐसा व्यक्ति गण को धारण कर सकता है।
जो मुल्लं आणयते, इंगालठ्ठाय सा दड्डा॥ १४३९. उवसग्गे सोढव्वे, झाए किच्चेसु यावि घितिमंतो। १४४६. इय चंदणरयणनिभा, पमायतिक्खेण परसुणा भेत्तुं। बुद्धिचउक्कविणीतो, अधवा गुरुमादिविणितो उ॥
दुविध पडिसेवि सिहिणा, ति-रयण खोडी तुमे दड्डा ।। जो उन उपसर्गों की ओर ध्यान देता है, जो उसे सहन एक इंगालदाहक (कोयला बनाने वाला) गोशीर्षचंदन का करने हैं, करणीय कार्य को करने में जो धृतिमान होता है- गट्ठर लेकर गांव में प्रवेश कर रहा था। एक वणिक ने उसे देखा। विषादग्रस्त नहीं होता, जो चारों प्रकार की बुद्धि में निपुण होता है। उसने सोचा-अभी यह ज्यादा मूल्य मांगेगा। जब यह जलाने अथवा जो गुरु के प्रति विनीत होता है।
लगेगा तब मैं कोयले का मूल्य चुकाकर खरीद लूंगा। वणिक १४४०. दव्वादी जं जत्थ उ,जम्मि व किच्चं तु जस्स वा जंतु। मूल्य लाने घर गया। इतने में ही उस अंगारदाहक ने उस
किच्चति अहीणकालं, जितकरण-विणीय एगट्ठा॥ गोशीर्षचंदन के गट्टर को जला दिया। इसका उपनय है--
जहां जिसके लिए जो द्रव्य आदि उपयोगी है तथा जिसके आचार्य कहते है-हे शिष्य ! इस प्रकार तुमने चंदनरत्न के सदृश लिए जो कृत्य करणीय है उसको जितकरण-विनीत व्यक्ति ठीक रत्नत्रयीरूप खोडी-गट्ठर को प्रमाद के तीक्ष्ण परशु से छिन्न-भिन्न समय पर अथवा समय का अतिक्रम किए बिना करता है। कर मूलगुणप्रतिसेवना और उत्तरगुणप्रतिसेवना-इन दो जितकरण और विनीत दोनों शब्द एकार्थक हैं।
प्रतिसेवनारूप अग्नि से जला डाला है। १४४१. एवं जुत्तछरिच्छा, जुत्तो वेतेहि एहि उ अजोग्गो। (यदि इस प्रकार वारित करने पर वह निवर्तित हो जाता है
आहारादि धरतो, तितिणिमादीहि दोसेहिं॥ तो उसे प्रायश्चित्त देकर स्थविरों के वर्त्तापक के रूप में स्थापित वह युक्तपरीक्षा से युक्त होने पर भी इन कथ्यमान दोषों से करना चाहिए। यदि निवर्तित न हो तो उससे गण का भार ले अयोग्य भी हो सकता है। जो आहार, उपधि, पूजा के निमित्त गण लेना चाहिए।) को धारण करता है तथा तिन्तिण आदि दोषों से युक्त होता है वह १४४७. एतेण अणरिहेहिं, अण्णे इय सूइया अणरिहा उ। अयोग्य है।
के पुण ते इणमो ऊ, दीणादीया मुणेयव्वा॥ १४४२. बहुसुत्ते गीतत्थे, धरेति आहार-पूयणट्ठाई। ऐसे व्यक्ति अनर्ह होते हैं। अन्य व्यक्ति भी अनर्ह के रूप में
तितिणि-चल-अणवट्ठिय, दुब्बलचरणा अजोग्गा उ॥ सूचित किए गए हैं। वे कौन से हैं? यह पूछने पर आचार्य कहते
जो बहुसूत्र और गीतार्थ होने पर भी आहार, पूजा आदि के हैं-आगे कहे जाने वाले दीन आदि अनर्ह जानने चाहिए। लिए गण को धारण करता है, जो तितिण स्वभाव वाला होता है, १४४८. दीणा जुंगित चउरो, जातीकम्मे य सिप्पसारीरे। जो चलचित्त और अनवस्थित तथा दुर्बलचारित्रवाला होता है-ये
पाणा डोंबा किणिया, सोवागा चेव जातीए। सब गण धारण के अयोग्य हैं।
जो दीन हैं, चार प्रकार के मुंगिक हैं-जाति से, कर्म से, १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहार भाष्य, कथा परिशिष्ट ८। Jain Education International
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