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तीसरा उद्देशक
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आदेयवाक्य है, जो परिपूर्ण देहवाला है, जो लोक में सत्कार- तालाब में पद्म आदि हो जाते हैं। जहां पानी सूख जाता है वहां भाक-विद्वज्जनपूज्य है, जो मतिमान् है, शैक्ष जिसकी पूजा करते धान्य की बुवाई करता है और जब उस धान्य का उपभोग किया हैं, सामान्य लोग भी जिसको बहुमान देते हैं, वह गणधारण जाता है तो वह लोकगर्हित नहीं माना जाता। इसी प्रकार जो योग्य होता है।
निर्जरा के लिए गण धारण करता है और वह उसके पूजा का हेतु १४००. पूयत्थं णाम गणो, धरिज्जते एव ववसितो सुणय। बनता है तो वह दोषावह नहीं होता।
आहारोवहिपूयाकारण न गणो धरेयव्वो॥ १४०६.संतम्मि उ केवइओ, सिस्सगणो दिज्जती ततो तस्स।
जो इस विचार के साथ गण को धारण करता है कि मेरी ___ पव्वाविते समाणे, तिण्णि जहन्नेण दिजंति।। पूजा होगी तो शिष्य ! तुम सुनो। आहार, उपधि और पूजा-प्राप्ति पूर्व आचार्य के शिष्य-परिवार के होने पर जिसको के लिए गण को धारण नहीं करना चाहिए।
गणधारण की अनुज्ञा दी गई हो, उसको कितने शिष्य दिए जाते १४०१. कम्माण निज्जरट्ठा, एवं खु गणो भवे धरेयव्वो। हैं? प्रव्रजित शिष्यगण होने पर जघन्यतः उसे तीन शिष्य दिए
निज्जरहेतुववसिता, पूर्व पि च केइ इच्छंति॥ जाते हैं।
केवल कर्मों की निर्जरा के लिए गण को धारण किया जाता १४०७. एगो चिट्ठति पासे, सण्णा आलित्तमादि कज्जट्ठा। है। कुछ स्थविरकल्पिक निर्जरा के हेतु से गण को धारण करने के
भिक्खादि वियार दुवे, पच्चयहेउं च दो होउ।। लिए दृढ़ निश्चय करते हैं, परंतु साथ-साथ पूजा की भी इच्छा एक शिष्य आचार्य के पास रहता है। उसका आचार्य के करते हैं।
साथ संज्ञाभूमि में जाना, आचार्य किसी को बुलाए तो उसको ले १४०२. गणधारिस्साहारो, उवकरणं संथवो य उक्कोसो।। आना आदि कार्य करता है। दो मुनि भिक्षा लाने अथवा
सक्कारो सीसपडिच्छगेहि गिहि-अन्नतित्थीहिं॥ विचारभूमि-बहिर्भूमी में जाने के निमित्त अथवा सूत्रार्थ के संवाद गणधारी का आहार, उपकरण तथा संस्तव उत्कृष्ट होता प्रत्यय के निमित्त दो का होना आवश्यक है। है। शिष्यों, प्रतिच्छकों, गृहस्थों तथा अन्यतीर्थिकों से उसे १४०८. दव्वे भावपलिच्छद, दव्वे तिविहो उ होति चित्तादी। सत्कार प्राप्त होता है।
लोइय लोउत्तरिओ, दुविधो वावार जुत्तितरो। १४०३. सुत्तेण अत्थेण य उत्तमो उ,
परिच्छद के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः और भावतः। द्रव्यआगाढपण्णेसु य भावितप्पा। परिच्छद के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। इस तीन जच्चन्नितो वा वि विसुद्धभावो,
प्रकार के द्रव्य परिच्छद के प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं-लौकिक संते गुणेवं पविकत्थयंतो॥ और लोकोत्तरिक। यह दो प्रकार का है-व्यापारयुक्त तथा यह सूत्र और अर्थ से उत्तम-परिपूर्ण है, यह आगाढ़प्रज्ञा व्यापारअयुक्त। वाले शास्त्रों में व्याप्त होता है, यह भावितात्मा है, यह १४०९. दो भाउगा विरिक्का, एक्को पुण तत्थ उज्जतो कम्मे। जात्यान्वित है-अच्छे कुल में उत्पन्न है, यह विशुद्धभाव से युक्त
उचितभतिभत्तदाणं, अकालहीणं च परिवुड्डी।। है-इस प्रकार उसके विद्यमान गुणों की सभी उत्कीर्तना करते हैं, १४१०. कतमकतं न वि जाणति, न य उज्जमते सयं न वावारे। श्लाघा करते हैं।
भतिभत्तकालहीणे, दुग्गहियकिसीय परिहाणी॥ १४०४. आगम्म एवं बहुमाणितो हु,
दो भाई थे। दोनों अलग-अलग रहते थे। उनमें एक आणाथिरत्तं च अभावितेसु।। कृषिकर्म में उद्युक्त रहता था। वह अपने कर्मकरों को पूरा मूल्य विणिज्जरा वेणइयाय निच्चं,
चुकाता और अकालहीन अर्थात् परिपूर्ण भक्त देता था। इस माणस्स भंगो वि य पुज्जयते॥ प्रकार उसके कृषि की वृद्धि होती गयी। जो ऐसे आचार्य की पूजा करते हैं, उससे आगम बहुमानित दूसरा भाई कृषिकर्म किया या नहीं किया-इसको नहीं होते हैं, भगवत् आज्ञा की अनुपालना होती है, अभावित शिष्यों जानता था। वह न स्वयं कृषिकार्य में उद्युक्त होता था और न में स्थिरत्व आता है, विनय के निमित्त से होने वाली कर्म-निर्जरा कर्मकरों को उसमें व्यापृत करता था। वह कर्मकरों की भृति और नित्य होती है, अहंकार का भंग होता है।
भोजन कालहीन अर्थात् अपरिपूर्ण देता था। इस प्रकार उसकी १४०५. लोइयधम्मनिमित्तं, तडागखाणावितम्मि पदुमादी। कृषि दुर्गृहीत होने के कारण परिहीन हो गई।
न वि गरहिताणि भोत्तुं एमेव इमं पि पासामो॥ १४११. जो जाए लद्धीए, उववेतो तत्थ तं नियोएति। लौकिक धर्म के निमित्त कोई तालाब खुदवाता है। उस
उवकरणसुते अत्थे, वादे कहणे गिलाणे य॥ Jain Education International
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