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तीसरा उद्देशक
१३५७. तेसिं चिय दोण्हं पी, सीसायरियाण पविहरंताणं। १३६२. जो जं इच्छति अत्थं, नामादी तस्स सा भवति इच्छा।
इच्छेज्ज गणं वोढुं, जदि सीसो एस संबंधो॥ नामम्मि जं तु इच्छा, इच्छति नामं च जस्सिच्छा।
आचार्य और शिष्य केवल दो साथ हैं। वे विहार कर रहे हैं। जो जिस नाम आदि अर्थ की अभिलाषा करता है, वह यदि शिष्य गण को धारण करने की इच्छा करता है तो उसकी उसकी इच्छा होती है। इच्छा के छह निक्षेप हैं-नामेच्छा, विधि यह है। यही पूर्वसूत्र से इस सूत्र का संबंध है।
स्थाछनेच्छा, द्रव्येच्छा, क्षेत्रेच्छा, कालेच्छा तथा भावेच्छा। जो १३५८. तेसिं कारणियाणं, अन्नं देसं गता य जे सीसा। जिस नाम की इच्छा करता है वह नामेच्छा है अथवा जिसका
तेसिमागंतु कोई, गणं धरेज्जाह वा जोग्गो॥ नाम इच्छा है, वह नामेच्छा है।
अथवा आचार्य और पारिहारिकशिष्य कारणवश अकेले १३६३. एमेव होति ठवणा, निक्खिप्पति इच्छते व जंठवणं। रह रहे हैं और जो शिष्य अन्य देशों में गए थे, उनमें से कोई योग्य
सामित्तादी जधसंभवं तु दव्वादि जं भणसु॥ शिष्य आकर गण को धारण करता है, तो उसकी विधि यह है। नामेच्छा की भांति ही स्थापनेच्छा होती है। इच्छा का यही पूर्वसूत्र से इस सूत्र का संबंध है।
जिसमें निक्षेप किया जाता है, वह स्थापनेच्छा होती है। १३५९. थेरे अपलिच्छन्ने, अपलिच्छन्ने सयं पि चग्गहणा। यथासंभव स्वामित्व आदि के प्रकारों से द्रव्येच्छा, क्षेत्रेच्छा तथा
दव्वाऽछन्नो थेरो, इतरो सीसो भवे दोहिं॥ कालेच्छा कहनी चाहिए।'
स्थविर अर्थात् आचार्य अपरिच्छद-शिष्य परिवार से १३६४. भावे पसत्थमपसत्थिया य अपसत्थियं न इच्छामो। रहित है। भिक्षु भी स्वयं अपरिच्छद है। स्थविर द्रव्यतः
इच्छामो य पसत्थं, नाणादीयं तिविधइच्छं। अपरिच्छद है, किंतु भावतः सूत्र आदि से सपरिच्छद है। किंतु भाव इच्छा के दो प्रकार हैं-प्रशस्त और अप्रशस्त। वह भिक्षु द्रव्यतः और भावतः अपरिच्छद है।
अप्रशस्त इच्छा की कामना नहीं करते। ज्ञान, दर्शन और चारित्र १३६०. नोकारो खलु देसं, पडिसेहयती कयाइ कप्पेज्जा। विषयक जो इच्छा है वह प्रशस्त इच्छा है। हम उसकी इच्छा
ओसन्नम्मि उ थेरे, सो चेव परिच्छओ तस्स॥ करते हैं। 'नोकार' देश प्रतिषेधक शब्द है। कदाचित् वैसा करना १३६५. नामादि गणो चउहा, कल्पता भी है। सपरिच्छद आचार्य के अवसन्न होने पर,
दव्वगणो खलु पुणो भवे तिविधो। कालगत होने पर, जो शिष्य गण को धारण करता है, आचार्य
लोइय-कुप्पावणिओ, का परिच्छद उसका हो जाता है।
__ लोगुत्तरिओ य बोधव्वो॥ १३६१. भिक्खू इच्छा गणधारए, अपव्वाविते गणो नत्थि। नाम आदिरूप गण चार प्रकार का होता है-नामगण, . इच्छातिगस्स अट्ठा, महातलागेण ओवम्मं॥ स्थापनागण, द्रव्यगण और भावगण। द्रव्यगण के दो प्रकार हैं
भिक्षु गण को धारण करने की इच्छा करता है। जो स्वयं आगमतः और नोआगमतः। नोआगमतः के तीन प्रकार हैंदूसरों को प्रताजित नहीं करता, उसके गण नहीं होता। रत्नत्रयी ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त। तद्व्यतिरिक्त के तीन के लिए गण को धारण करना चाहिए। (पूजा-सत्कार के लिए प्रकार हैं-लौकिक, कुप्रावचनिक तथा लोकोत्तरिक। नहीं।) यहां महातालाब की उपमा है। १. स्वामित्व से द्रव्येच्छा-पुत्र प्राप्ति की कामना. करण से-मद्य पीने से से-घर में स्थित व्यक्ति में भोगेच्छा, कामेच्छा। गुरुकुल में रहने से . कामेच्छा, अधिकरण से कोमल शय्या पर बैठने से कामेच्छा सम्यग् अनुष्ठानेच्छा। कालेच्छा-करण से-यौवन में धनेच्छा, आदि। क्षेत्र-काल अचेतन हैं। अतः स्वामित्व की इच्छा नहीं होती। भोगेच्छा। अधिकरण से-हेमंत की रात्री में शीत से पीड़ित होकर करण से क्षेत्रेच्छा-सुंदर क्षेत्र में कीडनेच्छा, वपनेच्छा। अधिकरण सूर्योदय की इच्छा।
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