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सानुवाद व्यवहारभाष्य
जो
है जो स्वयं उसने अनुभव किया है अथवा मिथ्यादृष्टि लोगों ने जो किया है। १२८२. पहाणादीणि कताई, देह वते मज्झ बेति तु अगीतो।
पुव्वं च उवस्सग्गा, किलिट्ठभावो अहं आसी॥
यदि वह अगीतार्थ हो तो वह कहता है-मैंने स्नान आदि भी किए थे तथा उपसर्ग होने से पूर्व ही मेरे परिणाम क्लिष्ट हो गए थे, फिर मेरे में विशुद्ध परिणाम आ गए थे, इसलिए आप मेरे में व्रतों का आरोपण करें। १२८३. वेसकरणं पमाणं, न होति न य मज्जणं णऽलंकारो।
सातिज्जितेण सेवी, अणणुमतेणं असेवी तु॥
आचार्य तब कहते हैं-वत्स! वेश करना, मज्जन करना, अलंकार पहनना, प्रतिसेवना अथवा अप्रतिसेवना का प्रमाण नहीं है। जो स्नान आदि का अनुमोदन करता है वह प्रतिसेवी है और जो अनुमोदन नहीं करता वह अप्रतिसेवी है। १२८४. जो सो विसुद्धभावो, उप्पण्णो तेण ते चरित्तप्पा।
धरितो निमज्जमाणी, जले व नावा कुर्विदेण ।।
जो तुम्हारे में विशुद्धभाव उत्पन्न हुआ था, उससे तुम्हारी चारित्र आत्मा अवस्थित रह गई। जैसे जल में डूबती हुई नौका को नाविक बचा लेता है। १२८५. जध वा महातलागं, भरितं भिज्जंतमुवरि पालीयं।
तज्जातेण निरुद्धं, तक्खणपडितेण तालेण॥ एक बड़ा तालाब वर्षा के पानी से पूरा भर गया। तालाब की ऊपरीतन पाल टूटने लगी। उसी समय तालवृक्ष का एक फल उसी प्रदेश-स्थान में आकर गिरा और उससे पानी बहना निरुद्ध हो गया। १२८६. एवं चरणतलागं, णातय उवसग्गवीचिवेगेहिं।।
भिज्जंतु तुमे धरियं धिति-बलवेरग्गतालेणं ।।
इसी प्रकार ज्ञातियों के उपसर्गरूपी लहरों के वेग से टूटते हुए चारित्ररूपी तालाब की पालि को धृतिबल और वैराग्यरूपी तालफल ने बचा लिया। १२८७. पडिसेहियगमणम्मी, आवण्णो जेण तेण सो पुट्ठो।
संघाडतिहे वोच्छो, उवधिग्गहणे ततो विवदो॥ प्रतिषिद्धगमन (उत्प्रव्रजन) करने तथा जिन कारणों से उसने प्रतिसेवना की, उनसे वह कर्मबंध से स्पृष्ट हुआ है। जो उसके साथ संघाटक-दो मुनि गए थे उनकी तीन दिन तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। फिर उनकी उपधि को ग्रहण कर लेना चाहिए। विवाद करने पर"." (इस गाथा के उत्तरार्ध की व्याख्या आगे) १२८८. एगाह तिहे पंचाहए य ते बेंति णं सहायाणं।
वच्चामोऽणिच्छंते, भणंति उवहिं ता देहि॥ एक दिन में, तीन दिन में अथवा पांच दिन तक प्रतीक्षा
करने पर भी वह मुनि लौटना नहीं चाहता तो सहायक उसको कहते हैं-चलो, हम कितने दिन तक प्रतीक्षा करें। यदि वह चलना न चाहे तो उसे कहें-उपधि तो हमें दे दो। १२८९. न वि देमि त्ति य भणिते,
गएसु जदि सो ससंकितो सुवति। उवहम्मति निस्संके,
न हम्मए अपडिबज्झंते॥ 'मैं उपधि भी नहीं दूंगा' यह कहने पर, सहायकों के चले जाने पर भी वह सशंकित सोता है तब उस उपधि का हरण कर लेना चाहिए। यदि वह निःशंकित होकर सोता है (यह सोचकर कि मुझे निश्चित ही उत्प्रव्रजन करना है) तब उपधि का हरण न करे। यदि वह अप्रतिबध्यमान होकर लौट आता है तो भी उपधि का हरण न करे। १२९०.संवेगसमावन्नो,
अणुवहतं घेत्तु एति तं चेव। अध होज्जाहि उवहतो,
सो वि य जदि होज्ज गीतत्थो॥ १२९१. तो अन्नं उप्पायंते, चोवयं विगंचिउं एति।
अप्पडिबज्झंते तू, सुचिरेण वि हून उवहम्मे ।। वह मुनि संवेग को प्राप्तकर उपधि को अनुपहत अवस्था में लेकर आता है। यदि उपधि उपहत हो जाए और वह मुनि गीतार्थ हो तो उस उपहत उपधि का परिष्ठापन कर अन्य उपधि को लेकर आता है। कहीं भी प्रतिबंध न करने पर चिरकाल में भी उपधि का उपहनन नहीं होता। १२९२. गंतूण तेहि कधितं, स यावि आगंतु तारिसं कहए।
तो तं होति पमाणं, विसरिसकधणे विवादो उ॥ उस उत्प्रव्रजन करने वाले मुनि के साथ गए हए दोनों मुनि आचार्य के पास आकर सारी बात बताते हैं। वह उत्प्रव्रजित मुनि भी आकर वैसा ही कथन करता है तो वह बात प्रामाणिक मानी जाती है और यदि विसदृश कथन होता है तो दोनों में विवाद हो जाता है। १२९३. अधवा बेंति अगीता, मज्जणमादीहि एस गिहिभूतो।
तं तु न होति पमाणं, सो चेव तहिं पमाणं तु॥
अथवा वे अगीतार्थ मुनि आचार्य को कहते हैं-यह मज्जन आदि के कारण गृहीभूत हो गया है। (वह कहता है-मैंने मज्जन आदि नहीं किया। स्वजनों ने बलात् करा दिया। मैं स्नान आदि के प्रति आसक्त भी नहीं हुआ।) यह सुनकर आचार्य अगीतार्थ मुनियों को प्रमाण नहीं मानते, उस मुनि को ही प्रमाण मानते हैं। १२१४. पडिसेवि अपडिसेवी, एवं थेराण होति उ विवादो।
तत्थ वि होति पमाणं, स एव पडिसेवणा न खलु।।
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