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दूसरा उद्देशक
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है।
है। वह यह है-तप से तुलना करनी चाहिए। उसे कहना चाहिए चोरी कर ले तो उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। यह जो जिसके पास भांड होता है, देय होता है, वह वही देता है। हम अनवस्थाप्य योग है-पूर्व सूत्र से संबंध है। नौवें अनवस्थाप्य तो तपोधन हैं। हमारे पास तप है-धर्म है। तुम धर्म लो। प्रायश्चित्त के पश्चात् दसवें प्रायश्चित्त पारांचित का प्रसंग होता ११९९. जो णेण कतो धम्मो, तं देउ ण एत्तियं समं तुलति।।
___ हाणी जावेगाहिं, तावइयं विज्जथंभणता॥ १२०६. अणवट्ठो पारंचिय, पुव्वं भणिया इमं तु नाणत्तं। तब वह कहता है-जो इस व्यक्ति ने धर्म किया है, वह हमें
गिहिभूतस्स य करणं, अकरण गुरुगा य आणादी। दो। तब साधु कहते हैं-(ऋण मोचन) इतने धर्म के साथ तुलित अनवस्थाप्य और पारांचित प्रायश्चित्त पहले कहे जा चुके नहीं होता। तब वह कहता है-एक वर्ष या दो-चार वर्ष का धर्म हैं। यह उनमें विशेष कथन है। गृहीभूत करना। जो गृहीभूत किए कम दे दो। इसने जितना लिया है, उसके बराबर तोला जाए बिना उपस्थापना देता है, उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता उतना धर्म दे सकते हैं। जब वे तोलने के लिए तत्पर हों तब विद्या है तथा आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व आदि दोष भी उत्पन्न होते हैं। से तुला का स्तंभन कर देना चाहिए।
- १२०७. वरनेवत्थं एगे, पहाणविवज्जमवरे जुगलमत्तं । १२००.जदि पुण नेच्छेज्ज तवं,वाणियधम्मेण ताधि सुद्धो उ।
परिसामज्झे धम्म, सुणेज्ज कधणा पुणो दिक्खा। को पुण वाणियधम्मो, सामुद्दे संभवे इणमो॥ स्नान आदि का वर्जन कर वेश मात्र पहनाना अच्छा है-यह १२०१. वत्थाणाऽऽभरणाणि य, सव्वं छड्डित्तु एगर्विदेण। कुछ आचार्यों का अभिमत है। कुछ आचार्य कहते हैं-वस्त्रयुगल
पोतम्मि विवण्णम्मि, वाणियधम्मे हवति सुद्धो॥ मात्र पहनाना पर्याप्त है। वह परिषद् के मध्य आकर कहता है-मैं १२०२. एवं इमो वि साधू, तुज्झं नियगं च सार मोत्तूणं। धर्म सुनना चाहता हूं। आचार्य उसे धर्म कहते हैं। फिर वह दीक्षा
निक्खंतो तुज्झ घरे, करेउ इण्हं तु वाणिज्जं॥ के लिए प्रार्थना करता है।
यदि वह तप लेना स्वीकार न करे तब कहे-यह वणिकधर्म १२०८. ओभामितो न कुव्वति, पुणो वि सो तारिसं अतीचारं। के अनुसार शुद्ध है। तब वह पूछता है-वणिधर्म क्या है ? समुद्र
होति भयं सेसाणं, गिहिरूवे धम्मता चेव।। में संभ्रम होने पर यह धर्म है।
(शिष्य ने पूछा-ऐसा क्यों किया जाता है ?) आचार्य कहते समुद्र के प्रवास में प्रवहण के विपन्न होने की स्थिति में हैं ऐसी अपभ्राजना-तिरस्कृति करने पर वह पुनः वैसा अतिचार वणिक् वस्त्र, आभरण आदि सभी वस्तुओं को छोड़कर अकेला नहीं करता। शेष मुनियों में भी भय उत्पादित हो जाता है। उत्तीर्ण हो जाता है-यह वणिक्धर्म के अनुसार शुद्ध है। इसी गृहस्थरूप धर्मता-धर्म से अनपेत होता है, इसलिए यह रूप प्रकार यह साधु अपना सार तुम्हारे घर में रखकर निष्क्रांत हुआ किया जाता है। था। इसे भी पोतवणिक की भांति निर्ऋण कर दो।
१२०९. किं वा तस्स न दिज्जति,गिहिलिंगं जेण भावतो लिंगं। १२०३. बोधियतेणेहि हिते, विमग्गणा साधुणो नियमसा उ।
अजढे वि दव्वलिंगे, सलिंग पडिसेवणा विजढं।। __ अणुसासणमादीओ एसेव कमो निरवसेसो॥ उसको गृहिलिंग क्यों नहीं दिया जाता जिसके द्रव्यलिंग
बोधिक अथवा चोरों के द्वारा साधु का अपहरण कर देने ___का परित्याग नहीं किया है किंतु स्वलिंग में रहते हुए प्रतिसेवना पर नियमतः साधुओं को उसकी मार्गणा अनुशासन आदि पूर्वोक्त की है। वास्तव में उसने भावतः लिंग को परित्यक्त कर दिया है। पूरे क्रम से करनी चाहिए।
१२१०. अग्गिहिभूतो कीरति, रायणुवत्तिय पदुट्ठ सगणो वा। १२०४. तम्हा अपरायत्ते, दिक्खेज्ज अणारिए य वज्जेज्जा।
परमोयावणइच्छा, दोण्ह गणाणं विवादो वा। अद्धाणअणाभोगा, विदेस असिवादिसुं दो वि॥ गृहस्थीभूत किए बिना उपस्थापना देने के ये कारण हैंइसलिए अपरायत्त (स्वाधीन) व्यक्ति को दीक्षित करे और १. राजा की अनुवृत्ति-आज्ञा से अनार्य देशों का वर्जन करे। मार्ग में प्रवास करते हुए परायत्त २. स्वगण प्रदुष्ट हो जाने पर अथवा अजानकारी के कारण विदेशवासी को भी प्रव्रजित कर ३. बलात् दूसरों द्वारा मुक्त कराने की स्थिति में सकता है। अशिव आदि कारण उपस्थित होने पर दोनों-परायत्त ४. इच्छापूर्ति के लिए की दीक्षा और अनार्य देशगमन भी कर सकता है।
५. दो गणों में विवाद हो जाने पर। १२०५. अट्ठस्स कारणेणं, साधम्मियतेणमादि जदि कुज्जा। १२११. ओलोयणं गवेसण, आयरिओ कुणति सव्वकालं पि। __इति अणवढे जोगो, नवमातो यावि दसमस्सा॥ __ उप्पण्णे कारणम्मि सव्वपयत्तेण कायव्वं ॥ पूर्वोक्त प्रकार से उत्पादित अर्थ को साधर्मिक के कारण जिन आचार्य से मुनि ने अनवस्थाप्य अथवा पारांचित
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