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दूसरा उद्देशक
करने के इच्छुक व्यक्षर-दास को दीक्षा दी जा सकती है। अथवा कर दें अथवा गणिका के मित्र-ज्ञातिजनों से गणिका को अनुशिष्टि परिचर्या के निमित्त उसे दीक्षित किया जा सकता है। पश्चात् दें-समझाएं। इतना करने पर भी यदि गणिका नहीं मानती है तो कोई अन्य प्रयोजन होने पर, जिस मुनि ने उस दास को दीक्षित सूत्र के कथनानुसार कार्य कर देना चाहिए अर्थात् उसे छोड़ देना किया है, उसके पास से उसे हटाकर अन्य प्रयोजन में संयुक्त कर चाहिए। दिया जाता है।
११८०. सकुडंबो निक्खंतो, अव्वत्तं दारगं तू निक्खिविउ। ११७३. अत्थेण जस्स कज्जं, संजातं एस अट्ठजातो तु।
मित्तस्स घरो सोच्चिय, कालगतो तोऽवमं जाय। सो पुण संजमभावा, चालिज्जंतो परिगिलाति॥ ११८१. तत्थ अणाढिज्जंतो, तस्स य पुत्तेहि सो ततो चेडो। प्रयोजन के निमित्त जिसका कार्य हुआ है वह है अर्थजात।
घोलंतो आवण्णो, दासत्तं तस्स आगमणं॥ वह संयमभाव से चालित होने पर परिग्लान होता है।
एक व्यक्ति अपने अव्यक्त पुत्र को मित्र के घर पर ११७४. सेवगपुरिसे ओमे, आवन्न अणत्त बोहिगे तेणे। रखकर-संभलाकर सकुटुम्ब प्रवजित हो गया। वह मित्र भी
एतेहिं अट्ठजातं, उप्पज्जति संजमठितस्स॥ कालगत हो गया। तत्पश्चात् दुर्भिक्ष हुआ। मित्र के पुत्रों ने उस सेवक पुरुष के विषय में, दुर्भिक्ष में, दासत्व आने पर, कर्ज बालक को स्वीकार नहीं किया, उसे प्रेम नहीं दिया। वह बालक देने वाले द्वारा गृहीत होने पर, म्लेच्छों द्वारा अथवा चोरों द्वारा इधर-उधर घूमता था। वह एक गृही के घर दासरूप में रह गया। अपहृत होने पर-इन कारणों से संयम में स्थित मुनि के भी उसका मुनि पिता एक बार वहां आया। प्रयोजनजात उत्पन्न होता है। (विवरण अगली गाथाओं में) ११८२. अणुसासकहण ठवितं, भीसणववहार लिंग जं जत्थ। ११७५. अपरिग्गहगणियाए, सेवगपुरिसो उ कोई आलत्तो।
दूराऽऽभोग-गवेसण, पंथे जतणा य जा जत्थ॥ सा तं अतिरागेणं, पणयइ तओ अट्ठजाता य॥ (उस बालक को दासत्व से मुक्त करने के लिए मुनि-पिता ११७६. सा रूविणि त्ति काउं, रण्णाऽऽणीता तु खंधवारेण। क्या करे?) पहले अनुशासन, फिर धर्मकथन, फिर प्रव्रजित होते
इतरो तीय विउत्तो, दुक्खत्तो सो उ निक्खंतो॥ समय स्थापित द्रव्य, फिर भयोत्पादन, राजकुल में व्यवहार११७७. पच्चागता य सोउं, निक्खंतं बेति गंतु णं तहिय। शिकायत, जहां जो लिंग–वेश पूजित हो उसका ग्रहण, दूर देश
बहुयं मे उवउत्तं, जदि दिज्जति तो विसज्जामि।। के निधान का आभोग, गवेषणा करना, गवेषणा-मार्ग की यतना, एक अपरिग्रही गणिका एक सेवक पुरुष से बातचीत कर जो जहां यतना हो उसका परिपालन। (इसका पूरा विवरण आगे उसे अपने घर ले आई। वह एक विशेष प्रयोजन से उसके प्रति की गाथाओं में।) अत्यधिक रागरक्त होकर उसे प्रसन्न रखने लगी। वह अत्यंत ११८३. नित्थिण्णो तुज्झ घरे, रिसिपुत्तो मुंच होहिती धम्मो। रूपवती गणिका है, ऐसा जानकर राजा ने उसे अपने स्कंधावार
धम्मकहपसंगणं, कधणं थावच्चपुत्तस्स॥ के साथ ले लिया। वह सेवक गणिका से वियुक्त होने पर दुःखी हो मुनि-पिता दासत्व प्राप्त पुत्र के स्वामी को कहे-तुम्हारे घर गया। तब वह निष्क्रमण कर प्रवजित हो गया। वह गणिका राजा में रहते हुए यह ऋषिपुत्र सारे दुर्भिक्ष को पार कर गया है, अब के साथ लौट आई। उसने सुना कि सेवक निष्क्रमण कर प्रव्रजित तुम इसको मुक्त कर दो, धर्म होगा। इस अनुशासना के पश्चात् हो गया है। वह गणिका तब साधुओं के उपाश्रय में जाकर उसे धर्मकथा के प्रसंग में स्थापत्यापुत्र (थावच्चापुत्त) की कथा बोली-इस सेवक ने मेरे प्रभूत धन का उपभोग किया है। वह धन कहे। यदि मुझे लौटा दिया जाए तो मैं इसे यहीं छोड़ दूंगी, अन्यथा ११८४. तह वि अठते ठवितं, भीसणववहार निक्खमंतेण। साथ ले जाऊंगी।
तं घेत्तूणं दिज्जति, तस्सऽसतीए इमं कुज्जा। ११७८. सरभेद वण्णभेद, अंतद्धाणं विरेयणं वावि। इतना करने पर भी स्वामी न माने तो निष्क्रमण करते
वरधणुग-पुस्सभूती, कुसलो सुहुमे य झाणम्मि॥ समय जो धन स्थापित किया था, उसे लेकर उसे दे अथवा उसे ११७९. अणुसढेि उच्चरती गमेंति णं मित्त-णायगादीहिं। भय दिखाए अथवा राजा के समक्ष शिकायत करे। यदि ये उपाय
__ एवं पि अठायंते, करेंति सुत्तम्मि जं वुत्तं॥ कारगर न हों तो इस प्रकार करे।
ऐसी स्थिति में आचार्य गुटिका प्रयोग से स्वरभेद तथा ११८५. नीयल्लगाण तस्स व, भेसण ता राउले सयं वावि। वर्णभेद करें। उसे अंतर्धान कर दें, कहीं अन्यत्र भेज दें। उसे
अविरिक्का मो अम्हे, कहं व लज्जा ण तुज्झं ति।। विरेचन आदि देकर ग्लान बना दें। उसे वरधनु की भांति मृतकवेश ११८६. ववहारेण य अहयं, भागं घेच्छामि बहुतरागं भे। करा दें। अथवा पुष्यभूति आचार्य की भांति सूक्ष्मध्यान में कुशल
अच्चियसलिंगं व करे, पण्णवणा दावणट्ठाए। Jain Education International
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