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पहला उद्देशक
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संधना है क्योंकि इसमें भी शुभभावों की अव्यवछिन्न संधना भी होती है। प्रयोजनवश यतनापूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना होती है।
कर्मक्षय करने वाली होती है तथा दर्प से अयतनापूर्वक की जाने २२०. मीसाओ ओदइयं, गतस्स मीसगमणे पुणो छिन्नं । वाली प्रतिसेवना कर्मों की जननी होती है।
अपसत्थ पसत्थं वा, भावे पगतं तु छिन्नेण ।। २२६. पडिसेवणा उ कम्मोदएण कम्ममवि तं निमित्तागं । मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में
अण्णोण्णहेउसिद्धी, तेसिं बीयंकुराणं च ।। संक्रमण होना छिन्न भावसंधान है तथा औदयिक भाव से पुनः प्रतिसेवना कर्मोदय से होती है (प्रतिसेवना का हेतु कर्म है) मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक भाव में संक्रमण होना भी छिन्न तो कर्म का हेतु भी प्रतिसेवना है। प्रतिसेवना और कर्म का भावसंधान है। अथवा छिन्न भावसंधना के दो प्रकार हैं-प्रशस्त परस्पर हेतुभावसिद्ध है, जैसे बीज और अंकुर का। (बीज अंकुर
और अप्रशस्त।' यहां अप्रशस्त छिन्न भावसंधना का प्रसंग है। का हेतु है और अंकुर बीज का।) २२१. मूलुत्तरपडिसेवा, मूले पंचविध उत्तरे दसधा। २२७. दिट्ठा खलु पडिसेवा, सा उ कहिं होज्ज पुच्छिए एवं । एक्केक्का वि य दुविहा, दप्पे कप्पे य नायव्वा ।।
भण्णति अंतोवस्सय, बाहिं व वियारमादीसु ।। प्रतिसेवना के दो प्रकार हैं-मूलगुणप्रतिसेवना,उत्तरगुण- प्रतिसेवना जान ली गयी। वह (क्षेत्रतः) कैसे होती है, यह प्रतिसेवना। मूलगुण प्रतिसेवना के पांच भेद हैं तथा उत्तरगुण- पूछने पर आचार्य कहते हैं-वह उपाश्रय में अथवा उपाश्रय के प्रतिसेवना' के दस भेद हैं। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं। दर्प बाहर-विचारभूमी अथवा विहारभूमी आदि में जाते हुए होती है। प्रतिसेवना और कल्प प्रतिसेवना।
२२८. पडिसेविए दप्पेणं, कप्पेणं वावि अजतणाए उ। २२२. किध भिक्खू जयमाणो,आवज्जति मासियं तु परिहारं । न वि णज्जति वाघातो, कं वेलं होज्ज जीवस्स ।।
कंटगपहे व छलणा, भिक्खू वि तहा विहरमाणो ।। दर्प से अथवा कल्प से अयतनापूर्वक की जाने वाली
जो आगम के अनुसार प्रयत्नवान् भिक्षु है उसे मासिक प्रतिसेवना की आलोचना कर लेनी चाहिए क्योंकि जीव का परिहार (प्रायश्चित्तस्थान) कैसे प्राप्त होता है? आचार्य कहते हैं- व्याघात (मृत्यु) कब हो जाये, यह जाना नहीं जा सकता। कंटकाकीर्ण पथ में यतनापूर्वक चलने वाले भिक्षु के भी छलना हो २२९. तं न खमं खु पमातो, मुहुत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं । जाती है, कांटा चुभ जाता है वैसे ही यतमान भिक्षु के भी मासिक आयरियपादमूले गंतूण समुद्धरे सल्लं ।। परिहार आ सकता है।
इसलिए प्रमाद से सशल्य होकर मुहूर्त भर के लिए भी २२३. तिक्खम्मि उदगवेगे,विसमम्मि व विज्जलम्मि वच्चंतो। रहना उचित नहीं है। किंतु आचार्य के पादमूल में जाकर शल्य
कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावए पडणं ।। को निकाल देना चाहिए, उसकी विशोधि कर लेनी चाहिए। २२४. तह समण-सुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वी जतंताणं। २३०. न हु सुज्झती ससल्लो, कम्मोदयपच्चइया, विराहणा कस्सइ हवेज्जा ।।
जह भणियं सासणे जिणवराणं ।। अति प्रबल पानी के प्रवाह में अथवा विषम कर्दमस्थान में
उद्धरियसव्वसल्लो, चलता हुआ पुरुष प्रयत्न करता हआ भी अवश होकर गिर
सुज्झति जीको धुतकिलेसो।। पड़ता है। वैसे ही सुविहित श्रमण के सर्वप्रयत्न से यतमान होते जिनेश्वरदेव के शासन में कहा गया है कि सशल्य व्यक्ति हुए भी कभी किसी कर्मोदय के निमित्त से विराधना हो सकती है। की विशुद्धि नहीं होती। समस्त शल्यों का उद्धार करने वाला २२५. अन्ना वि हु पडिसेवा, सा तु न कम्मोदएण जा जयतो। जीव ही धुतक्लेश-कर्मजाल से शुद्ध होता है अर्थात् मुक्तात्मा
सा कम्मक्खयकरणी, दप्पाऽजत कम्मजणणी उ ।। बन जाता है। केवल कर्मोदय से ही प्रतिसवेना नहीं होती, दूसरे हेतु से
१. जो प्रशस्त चरणभाव से अप्रशस्त चरण भाव में संक्रमण होता है वह अथवा उत्तरगुणों के ये दस प्रकार हैंअप्रशस्त छिन्नभावसंधान है और अप्रशस्त चरणभाव से प्रशस्त
१. पिंडविशोधि चरणभाव में संक्रमण होना प्रशस्त छिन्नभावसंधान है।
२-६. पांच समितियां २. उत्तरगुण के दस प्रकार-दस प्रकार के प्रत्याख्यान-अनागत,
७. छह प्रकार का बाह्य तप अतिक्रांत, कोटिसहित, नियंत्रित, साकार, अनाकार, परिमाणकृत,
८. छह प्रकार का आभ्यंतर तप निरवशेष, सांकेतिक तथा अद्धाप्रत्याख्यान।
९. बारह भिक्षु प्रतिमाएं
१०. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि से अभिग्रह-ग्रहण । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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