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सानुवाद व्यवहारभाष्य
में स्थित था। उसने देखा। परस्पर वार्तालाप हुआ। देवता ने कहा-गच्छ में लौट जाओ। अन्यथा कोई प्रांत देवता तुम्हें ठग लेगा।' ८२१. ओवाइयं समिद्धं महापसुं देमु सज्जमज्जाए।
एत्थेव ता निरिक्खह, दिढे वाडं व समणो वा।।
एक अव्यक्त मुनि दुर्गा के मंदिर पर कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। एक पुरुष देवी की मनौति करते हुए बोला-यदि मेरा मनोरथ पूरा हो जायेगा तो मैं महापशु (पुरुष) की बलि दूंगा। उसका मनोरथ सिद्ध हो गया। उसने सोचा-देवी को महापशु चढाएं। उसने अपने आदमियों को महापशु की गवेषणा के लिए भेजा। उन्होंने वहां मुनि को देखा। उन्होंने कहा-इसकी बली दी जाए। यह सुनकर वह मुनि भय से पलायन कर जाता है, अथवा यह कहता है-मैं श्रमण हूं तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता
यदि वह मुनि भिक्षुणी के कांटे लगे पैर को पकड़ता है तो छह लघुमास, यदि वह पैर को ऊंचा उठाता है तो छह गुरुमास और यदि योनि दिखती है तो छह गुरुमास और योनि दर्शन के पश्चात् यदि प्रतिसेवना के लिए भाव परिणत होता है तो छेद तथा प्रतिसेवना करने पर मूल-यह भिक्षु के लिए प्रायश्चित्त का विधान है। गाथा में प्रयुक्त 'सत्तट्टे' की व्याख्या।
गणावच्छेदी के लिए द्वितीय प्रायश्चित्त चार लधुमास से प्रारंभ कर सप्तम प्रायश्चित्त अनवस्थाप्य तक का है। आचार्य के लिए चतुर्गुरु से प्रारंभ कर आठवें पारांचित प्रायश्चित्त तक का
भजा।
विधान है।
है।
८२२. उदगभएण पलायति, पवति व रोहए सहसा।
एमेव सेसएसु वि, भएसु पडिकार मो कुणति ॥
जो उदक के भय से पलायन कर जाता है, अथवा पानी में तैरता है, अथवा सहसा वृक्ष पर चढ़ जाता है, उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। इसी प्रकार शेष सभी प्रकार के भयप्रसंगों में प्रतिकार करता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ८२३. जेट्ठज्ज पडिच्छाही, अहं पि तुब्भेहि समं वच्चामि।
इति सुकलुणमालत्तो, मुज्झति सेहो अथिरभावो।
कायोत्सर्ग समाप्त कर विहार करते हुए प्रतिमाधारी मुनि को भिक्षुणी का वेश बनाकर आया हुआ देवता कहता है-ज्येष्ठार्य ! मैं तुम्हारे साथ चलूंगी। कुछ प्रतीक्षा करो। (मैं पैरों से कांटा निकाल लेती हूं।) वह शेक्ष मुनि उसके करुण वचनों को सुनकर मोहित हो जाता है और तब उसके भाव अस्थिर हो जाते हैं। प्रायश्चित्त पूर्ववत्। ८२४.अच्छति अवलोएति य,लहुगा पुण कंटगो मे लग्गो त्ति।
गुरुगा निवत्तमाणे, तह कंटगमग्गणे चेव॥
यदि वह मुनि 'मेरे कांटा लगा है' यह भिक्षुणी की बात . सुनकर प्रतीक्षा करता है तो चार लधुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि उस का अवलोकन करता है तो वही प्रायश्चित्त । यदि वह गच्छ से निर्गत होकर दूर जाकर लौट आता है तथा भिक्षुणी के पांव में लगे कांटे की मार्गणा करता है तो प्रायश्चित्त है चार गुरुमास। ८२५. कंटगपायग्गहणे, छल्लहु छग्गुरुग चलणमुक्खेवे।
दिम्मि वि छग्गुरुगा, परिणयकरणे य सत्तटे॥ १. पूरे कथानक के लिए देखें-व्यवहारभाष्य, कथापरिशिष्ट।
८२६. लहुगा य दोसु दोसु य, गुरुगा छम्मास लहु गुरुच्छेदो।
भिक्खु गणायरियाणं, मूलं अणवट्ठ पारंची।।
भिक्षु की दो क्रियाओं-प्रतीक्षा और अवलोकन में चार लघुमास, दो क्रियाओं-निवर्तन और कंटकमार्गणा में चार गुरुमास, कंटकग्रहण और पादग्रहण-इन दो में छह लघुमास, पादोत्क्षेप
और योनिदर्शन में छह गुरुमास, प्रतिसेवनाभिप्राय में छेद, प्रतिसेवना में मूल प्रायश्चित्त।
गणावच्छेदी के प्रसंग में-प्रतीक्षा में चार लधुमास, अवलोकन और निवर्तन-प्रत्येक में चार गुरुमास, कंटकमार्गणा और कंटकग्रहण-प्रत्येक में छह लघुमास, संयती के पादग्रहण में छह गुरुमास, पादोत्पाटन तथा सागारिकदर्शन-प्रत्येक में छेद, प्रतिसेवनाभिप्राय में मूल और प्रतिसेवना में अनवस्थाप्य ।
आचार्य के प्रसंग में-प्रतीक्षा और अवलोकन प्रत्येक में चार गुरुमास, निवर्तन और कंटकमार्गणा प्रत्येक में छह लघुमास, कंटकग्रहण और पादग्रहण-प्रत्येक में छह गुरुमास, पादोत्पाटन में छेद, सागारिकदर्शन में मूल, प्रतिसेवनाभिप्राय में अनवस्थाप्य
और प्रतिसेवना में पारांचित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ८२७. आसन्नातो लहुगो, दूरनियत्तस्स गुरुतरो दंडो।
चोदग संगामदुर्ग, नियट्ट खिसंतऽणुग्घाया।। ८२८. दि8 लोए आलोगभंगि वणिए य अवणिए नियत्तो।
अवराधे नाणत्तं, न रोयए केण तो तुज्झं।।
जो संयती के निकट प्रदेश से लौट आता है तो उसे लघु दंड अर्थात् चार लघुमास का दंड दिया जाता है और जो दूर से लौट आता है उसको गुरुतर दंड अर्थात् अनुद्घातित चार गुरुमास का दंड आता है। आचार्य का यह कथन सुनकर शिष्य ने संग्रामद्विक का दृष्टांत देते हुए कहा जो संग्राम से निवृत्त होता है उसकी खिंसना-हीलना होती है। होना यह चाहिए कि जो संयती प्रदेश के निकट से लौट आता है उसे गुरुतर दंड और दूर से प्रतिनिवृत्त होता है उसे लघु दंड आना चाहिए। क्योंकि लोक व्यवहार में भी
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