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पहला उद्देशक
८११. आगमणे सक्कारं कोई वडूण जातसंवेगो । आपुच्छण पडिसेहण, देवी संगामतो णीति ॥ प्रतिमा संपन्न कर गण में आगमन पर उस भिक्षु का सत्कार देखकर किसी भिक्षु आदि के मन में वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और वह आचार्य से पूछता है मैं भी एकलविहारप्रतिमा स्वीकार करना चाहता हूं। आचार्य उसको अयोग्य मानकर प्रतिषेध करते हुए एक देवी - रानी का उदाहरण कहते हैं जो राजा के द्वारा प्रतिषेध करने पर भी संग्राम में गई और शत्रु राजा ने उसका अपहरण कर उसे मार डाला।
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८१२. संगामे निवपडिमं देवी कांऊण, जुज्झति रणम्मि बितियबले नरवतिणा, नातुं गहिता परिसिता य॥ एक रानी राजा का आकार धारण कर संग्राम में लड़ने गई। शत्रु सेना के नरपति ने जान लिया कि यह कोई स्त्री युद्ध कर रही है। उसके राजपुरुषों ने उसे पकड़ लिया और उसकी अवहेलना कर मार डाला।
८१३. दूरे ता पहिमाओ, गच्छविहारे वि सो न निम्माओ । निम्गंतुं आसन्ना, नियत्तह लक्ष्य गुरू दूरे ॥ वैसे अव्यक्त भिक्षु के प्रतिमा स्वीकार की बात तो दूर रही, वह गच्छविहार-गच्छ की समाचारी में भी निष्णात नहीं है। यदि प्रतिषेध करने पर भी वह गच्छ से निकल कर निकटता से शीघ्र ही लौट आता है तो उसका प्रायश्चित है एक लघुमास और यदि दूर जाकर लौटता है तो उसका प्रायश्चित्त है एक गुरुमास ।
८१४. सच्छंदो सो गच्छा,
निग्गंतूणं ठितो उ सुण्णघरे । सुत्तत्थसुण्णहियओ, संभरति इमेसिमेगागी ॥ ८१५. आयरिय-वसभसंघाडए य कंदप्प मासियं लहुयं । एगाणिय सुण्णघरे, अत्यमिते पत्थरे गुरुगा ॥ जो भिक्षु स्वच्छंद मति से गच्छ से निकल कर शून्यगृह आदि में कायोत्सर्ग में स्थित हो जाता है, वह सूत्रार्थ से शून्य हृदय वाला मुनि एकाकी होने के कारण आचार्य, वृषभ अथवा संघटक मुनियों की स्मृति करता है तथा गच्छ में रहते हुए जिनजिन मुनियों के साथ कंदर्प- हास्यक्रीडा की उनकी स्मृति करता है। उसे एक लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यदि शून्यगृह में एकाकी रहता हुआ दिन में भयभीत होता है तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त तथा सूर्यास्त के बाद डर कर पत्थर आदि ग्रहण करता है तो उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। ८१६. पत्थर छुहए रत्ती, गमणे गुरुलहुग दिवसतो होंति । आतसमुत्था एते, देवयकरणं तु वोच्छामि ॥ यदि वह भिक्षु रात्री में डरकर शून्यगृह आदि में पत्थरों को एकत्रित करता है, अथवा रात्रि में ही गच्छ में लौट आता है तो
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उसे चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। जो भय के कारण दिन मैं भी पत्थरों का संग्रह करता है अथवा गच्छ में लौट आता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। ये आत्मसमुत्थ दोष कहे गए हैं। देवताकरण दोषों को मैं आगे कहूंगा। ८१७. पत्थरमणसंकप्पे, मग्गण दिडे य गहित खित्ते य।
पडित परितावित मए, पच्छित्तं होति तिण्हं पि ॥ ८१८. मासो लहुओ गुरुगो, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य ।
छम्मासा लहु गुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ यदि भिक्षु भय के वशीभूत होकर पत्थर लेने का मानसिक संकल्प करता है तो लघुमास, प्रस्तर की मार्गणा करने पर गुरुमास, यह पत्थर ग्राह्य है इस बुद्धि से अवलोकन करने पर चार लघुमास, पत्थर हाथ में लेने पर चार गुरुमास, मार्जार आदि पर फेंकने पर छह लघुमास, मार्जार आदि को पत्थर की मार लगने पर छह गुरुमास, अत्यंत परितापित होने पर छेद, मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर मूल प्रायश्चित प्राप्त होता है। यह भिक्षु के लिए इस प्रसंग का प्रायश्चित्त है।
गणावच्छेदी के लिए - प्रस्तर के मनः संकल्प में गुरुमास, मार्गणा में चार लघुमास, ग्राह्य बुद्धि से देखने पर चार गुरुमास, ग्रहण करने पर छह लघुमास फेंकने पर छह गुरुमास, मार्जार आदि पर पत्थर गिरने पर छेद, गाढ परिताप होने पर मूल, मर जाने पर अनवस्थाप्य - ये प्रायश्चित्त हैं।
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आचार्य के लिए मनः संकल्प में चार लघुमास, मार्गणा में चार गुरुमास, ग्राह्यबुद्धि से देखने पर छह लघुमास, ग्रहण में छह गुरुमास, फेंकने पर छेद, घात्य पर गिरने से मूल, गाढ़ परिताप होने पर अनवस्थाप्य और मर जाने पर पारांचित प्रायश्चित्त आता है। ८१९. बहुपुति पुरिसमेहे,
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उदयग्गी जड्ड सप्प चउलहुगा ।
अच्छण अवलोग नियट्ट,
कंटग गेण्हण दिट्ठे य भावे य ॥ बहुपुत्री, पुरुषमेध, उदक, अग्नि, हाथी और सर्प इनको देखकर पलायन करने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। अच्छण-प्रतीक्षा, अवलोकन, निवर्तन, कंटकग्रहण, दृष्ट तथा भाव इनमें यथायोग्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है (यह द्वार गाया है । व्याख्या अगली गाथाओं में ।)
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८२०. बहुपुत्तत्थी आगम, दोसूवलेसु तु थालि विझवणं ।
अण्णोण्णं पडिचोयण, वच्च गणं मा छले पंता ॥ एक देव बहुपुत्री स्त्री का रूप बनाकर आया। दो उपलों पर स्थाली पकाने का बर्तन रखकर नीचे असि प्रज्वलित कर दी। बर्तन नीचे गिर पड़ा। अग्नि बुझ गयी। वहीं अव्यक्तमुनि कायोत्सर्ग
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