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दूसरा उद्देशक
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९८४. सट्ठाणपरट्ठाणे, खओवसमितेसु तीसु वी भयणा।
दंसण-उवसम-खइए, परठाणे होति भयणा उ॥
क्षायोपशमिक भाव वाले ज्ञान, दर्शन और चारित्र-तीनों में स्वस्थान अथवा परस्थान में अतिचार की भजना है। औपशमिक
और क्षायिक दर्शन तथा चारित्र में स्वस्थान में अतिचार नहीं होता, परस्थान में अतिचार की भजना है। ९८५. दव्वदुए दुपदेणं, सच्चित्तेणं च एत्थ अहिगारो।
मीसेणोदइएणं, भावम्मि वि होति दोहिं पि॥
प्रस्तुत में द्रव्यद्विक और भावद्विक का अधिकार है। द्रव्यद्विक में सचित्त से तथा उसमें भी द्विपद अर्थात् साधर्मिक द्वय तथा क्षायोपशमिक तथा औदयिक इन दोनों भावों का यहां प्रसंग है। ९८६. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले य पवयणे लिंगे।
दंसण-नाण-चरित्ते, अभिग्गहे भावणाए य॥ साधर्मिक के बारह निक्षेप१. नामसाधर्मिक
७. लिंगसाधर्मिक २. स्थापनासाधर्मिक ८. दर्शनसाधर्मिक ३. द्रव्यसाधर्मिक ९. ज्ञानसाधर्मिक ४. क्षेत्रसाधर्मिक १०. चारित्रसाधर्मिक ५. कालसाधर्मिक ११. अभिग्रहसाधर्मिक
६. प्रवचनसाधर्मिक १२. भावनासाधर्मिक ९८७. नामम्मि सरिसनामो, ठवणाए कट्ठकम्ममादीसु।
दव्वम्मि जो उ भविओ, साधम्मि सरीरगं जं च॥
नामसाधर्मिक-सदृश नाम वाले दो व्यक्ति। स्थापनासाधर्मिक-काष्टकर्म आदि में स्थापित मूर्ति आदि। द्रव्य साधर्मिक जो भव्य अर्थात् भावी है तथा साधार्मिक का निष्प्राण शरीर। ९८८. खेते समाणदेसी, कालम्मि तु एक्ककालसंभूतो।
पवयणसंघेकतरो, लिंगे रयहरण-मुहपोत्ती॥
क्षेत्रसाधर्मिक-समान देश वाले जैसे-सौराष्ट्र सौराष्ट्र का। कालसाधर्मिक-एककाल में उत्पन्न। प्रवचनसाधर्मिक जैसे-संघ का कोई घटक-श्रमण-श्रमणी, श्रावक या श्राविका। लिंगसाधर्मिक-रजोहरण, मुखवस्त्रिका युक्त। ९८९. दंसण-नाणे-चरणे,
तिग पण-पण तिविधि होति व चरित्तं। दव्वादी तु अभिग्गह,
अह भावण मो अणिच्चादी॥ १. दर्शन, व्रत आदि प्रतिमाओं को धारण करने वाले दस प्रकार के
श्रावक सशिखाक होते हैं। ये दस प्रकार के श्रावक प्रवचन से साधर्मिक होते हैं, लिंग से नहीं। ग्यारहवीं प्रतिमा वाले श्रमणभूत होते हैं,
दर्शनसाधर्मिक तीन प्रकार के, ज्ञान साधर्मिक पांच प्रकार के, चारित्रसाधर्मिक तीन (अथवा पांच) प्रकार के होते हैं। अभिग्रह साधर्मिक-द्रव्य आदि का अभिग्रह करने वाले दो व्यक्ति। भावनासाधर्मिक-अनित्य आदि भावना करने वाले दो व्यक्ति। ९९०. साहम्मिएहि कहितेहि, लिंगादी होति एत्थ चउभंगो।
नाम ठवणा दविए, भाव विहारे य चत्तारि।।
साधर्मिकों के कथन के पश्चात् उनकी लिंग के साथ चतुर्भगी होती है। विहार संबंधी चार निक्षेप ये हैं-नामविहार, स्थापनाविहार, द्रव्यविहार और भावविहार। ९९१. लिंगेण उ साहम्मी, नोपवयणतो य निण्हगा सव्वे।
पवयणसाधम्मी पुण, न लिंग दस होति ससिहागा॥ ९९२. साधू तु लिंग पवयण,णोभयतो कुतित्थ-तित्थयरमादी।
उववज्जिऊण एवं, भावेतव्वो तु सव्वे वी॥ लिंगप्रवचन से चतुर्भंगी१. लिंग से साधर्मिक प्रवचन से नहीं-सभी निन्हव।
२. प्रवचन से साधर्मिक न लिंग से-शिखा-चोटी रखने वाले दस प्रकार के श्रावक।
३. प्रवचन से साधर्मिक लिंग से भी साधर्मिक-मुनि। ४.न प्रवचन से साधर्मिक और न लिंग से साधर्मिक।
इस प्रकार इनके आधार पर सभी का वर्णन करना चाहिए। ९९३. एमेव य लिंगेणं, दंसणमादीसु होंति भंगा उ।
भइएसु उवरिमेसुं, हेट्ठिल्लपदं तु छड्डेज्जा॥
इसी प्रकार लिंग साधर्मिक के साथ दर्शन साधर्मिक आदि के भंग भी होते हैं। भावना साधर्मिक पर्यंत सभी उपरितन साधर्मिकों के भंग कह देने पर अधस्तनपद को छोड़ दें। फिर उसके आगे का पद ग्रहण करें। जैसे-लिंगसाधर्मिक के दर्शन साधर्मिक के साथ भंग कर दर्शन के ज्ञान आदि से भंग करने चाहिए। ९९४. पत्तेयबुद्धनिण्हव, उवासाए केवली य आसज्ज।
खइयादिए य भावे, पडुच्च भंगे तु जाएज्जा।।
प्रत्येक बुद्ध, निन्हव, उपासक और केवली की अपेक्षा से तथा क्षायिक भावों के आश्रय से पूर्वोक्त भंगों (प्रवचन साधर्मिक, लिंगसाधर्मिक) को योजित करें। जैसे
१. प्रवचन से साधर्मिक नहीं, लिंग से साधर्मिकप्रत्येकबुद्ध, केवली।
२. लिंग से साधर्मिक, प्रवचन से नहीं निन्हव। मुंडित होते हैं। २. वृत्तिकार ने भंगों का विस्तार से वर्णन किया है। (पत्र ५,६)।
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