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दूसरा उद्देशक
वह आहार, उपधि, शय्या वसति के ग्रहण आदि में उद्गम, उत्पादन तथा एषणा दोषों को न जानता हुआ तथा कडिल्ल महागहन को न जानता हुआ सभी दोषों से संलग्न हो जाता है।
१००७. मूलगुण उत्तरगुणे आवण्णस्स य न याणाई सोहिं ।
पहिसिद्ध ति न कुणति, गिलाणमादीण तेगिच्छं । जो मूलगुण और उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना में प्रायश्चित्त प्राप्त व्यक्ति की शोधि को नहीं जानता वह प्रायश्चित्तदान में विसंवादी होता है। वह ग्लान आदि की चिकित्सा को प्रतिषिद्ध समझकर नहीं करता। (इसके अनेक दोष प्राप्त होते हैं) ।
१००८. अप्पसुतो ति व काउं, वुग्गाहेउं हरंति खुट्टादी तेणा सपक्ख इतरे, सलिंगगिहि अनहा तिविधा || स्तेन दो प्रकार के होते हैं स्वपक्षस्तेन तथा परपक्षस्तेन । स्तेनों के तीन प्रकार और हैं- स्वलिंगस्तेन, गृहस्थ तथा उनसे अतिरिक्त भिक्षुक आदि। स्वपक्षस्तेन दो प्रकार के होते हैंगीतार्थ और पार्श्वस्थ आदि शिष्य को अल्पश्रुत जानकर गीतार्थ उसका अपहरण कर लेते हैं। पार्श्वस्थ आदि क्षुल्लक मुनि को बहका कर ले जाते हैं।
१००९. एते चैव य ठाणे, गीतत्यो निस्सितो उ वज्जेति ।
भावविहारो एसो, दुविहो तु समासतो भणितो. ॥ इन स्थानों का गीतार्थ तथा गीतार्थ निश्रित मुनि वर्जन करता है। यह दो प्रकार का भावविहार संक्षेप में कहा गया है। १०१०. सो पुण होती दुविधो, समत्तकप्पो तधेव असमत्तो ।
तत्य समत्तो इणमो, जहण्णमुक्कोसतो होति ॥ १०११. गीतत्थाणं तिण्हं, समत्तकप्पो जहन्नतो होति । बत्तीससहस्साई, हवंति उक्कोसओ एस ॥ भावविहार के दो प्रकार और हैं-समाप्तकल्प तथा असमाप्तकल्प। समाप्सकल्प के दो भेद हैं- जघन्य तथा उत्कृष्ट | तीन गीतार्थ मुनियों का विहार जघन्य समाप्तकल्प और बत्तीस हजार गीतार्थो का विहार उत्कृष्ट समाप्तकल्प है।
१०१२. तिह समत्तो कप्पो, जहण्णतो दोन्नि ऊ जया विहरे । गीतत्याण वि लहुगो अगीत गुरुगा हमे बोसा ॥ तीन गीतार्थों का जघन्य समाप्तकल्प होता है और यदि दो गीतार्थ विहार करते हैं तो लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। दो अगीतार्थ बिहार करते हैं तो गुरुमास का प्रायश्चित है। दो के विहरण में ये दोष हैं।
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१०१३. दोडं विहरंताणं सलिंग गिहिलिंग अनलिंगे या
होति बहुवोसवसही, गिलाणमरणे य सल्ले य॥
दो मुनियों के विहरण में स्वलिंग, गृहलिंग तथा अन्यलिंग
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१०५ संबंधी अनेक दोष संभव होते हैं। वसति संबंधी अनेक दोष हो सकते हैं। दो मुनियों में से एक ग्लान हो जाने पर उसे अकेला छोड़कर भिक्षा के लिए जाना होता है। मरण हो सकता है। उसमें शल्य रह जाता है ।
१०१४. एगस्स सलिंगादी, बसहीए हिंडतो य साणाढी दोसा दोण्ह वि हिंडंतगाण वसधीय होंति इमे ॥ एक मुनि कार्यवश बाहर जाता है तब वसति को एकांत समझकर स्वलिंगिनी का उपपात हो सकता है। श्वान आदि का उपद्रव हो सकता है। यदि दोनों मुनि वसति को सूनी छोड़कर बाहर जाते हैं तो ये दोष संभव होते हैं। १०१५. मिच्छत्त बडुग चारण,
भडे य मरणं तिरिक्ख मणुयाणं । आदेसवाल निक्केयणे य
सुण्णे भवे दोसा ॥ वसति को सर्वथा शून्य कर चले जाने पर शय्यातर को अप्रीति के कारण मिथ्यात्व हो सकता है। बटुक, चारण और भट-इनका उपद्रव हो सकता है। तिर्यंच और मनुष्य की उसमें मृत्यु हो सकती है । शय्यातर उस रिक्त वसति को आने वाले प्राघूर्णक मुनियों को रहने के लिए दे देता है। पूर्व मुनियों के आने पर कलह हो सकता है। शून्य वसति में व्याल - सर्प आदि का उपद्रव होता है उसमें स्थित नवप्रसूता कुती आदि को निष्कासित करने पर संयमात्मविराधना हो सकती है। ये सारे दोष वसति को सूनी करने से होते हैं।
१०१६. गेलण्णसुण्णकरणे, खद्धाइयणे गिलाण अणुकंपा ।
साणादी य दुगंछा, तस्सट्ठगतम्मि कालगते ॥ ग्लान को शून्य कर अर्थात् अकेला कर जाने पर, ग्लान पर अनुकंपा कर गृहस्थ आदि उसको प्रचुरमात्रा में भोजन करा देने पर उसे वमन आदि हो सकता है। वमन को खाने के लिए श्वान आदि आते हैं। यह देखकर लोगों को जुगुप्सा होती है। ग्लान के लिए औषध आदि लाने के लिए उसको अकेला छोड़कर मुनि बाहर गया हो और वह ग्लान कालगत हो जाए तो ये दोष होते हैं।
१०१७. गिहि-गोण मल्ल राउल, निवेदणा पाण कहणुडाहे।
छक्कायाण विराधण, झामित मुक्के य वावण्णे || वसति में मुनि के कालगत हो जाने पर गृहस्थ उसे ले जाते हैं अथवा बैल, मल्ल आदि उसका निष्कासन करते हैं। राजा को निवेदन करने पर राजा उसके निष्कासन की व्यवस्था करता है अथवा चांडालों से उसको निकाला जाता है। इस प्रकार मृतमुनि को घसीटकर निकालने पर उड्डाह होता है। उसका अग्निदाह करने पर अथवा अस्थंडिल में वैसे ही डाल देने पर छह
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