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कुछेक प्रतिमाओं की उसी वर्ष (जिस वर्ष में परिकर्म किया) प्रतिपत्ति हो जाती है। उपरोक्त जो प्रतिमाएं हैं ( पांच मासिकी आदि) उनका परिकर्म अन्य वर्ष में और प्रतिपत्ति भी अन्य वर्ष में होती है। जिसने प्रतिमाओं का पहले आचरण कर लिया, वह चाहे तो उनके लिए परिकर्म करे या न करे। शेष अर्थात् जिसने जिस प्रतिमा का आचरण नहीं किया, उसको उसके प्रति परिकर्म करना ही होता है।
८०३. आमंतेऊण गणं,
सबालबुढाउल
खमावेत्ता । उग्गतवभावियप्पा, संजम पढमे वे बितिए वा ।। यह पारिहारिक मुनि आबालवृद्धाकुल संघ को आमंत्रित कर क्षमायाचना करता है। वह उग्रतप से अपनी आत्मा को भावित करता है । (प्रतिपद्यमान की अपेक्षा से) वह मुनि (मध्यवर्ती तीर्थकरों के शासनवर्ती हो तो) प्रथम चारित्र अर्थात् सामायिक चारित्र को और यदि (प्रथम य अंतिम तीर्थंकर के शासनवर्ती हो तो) दूसरा- छेदोपस्थानीय चारित्र में होता है।
८०४. पग्गहियमलेवकडं, भत्तजहण्णेण नवविधो उवही । पाउरणवज्जियस्स उ इयरस्स दसादि जा बारा ॥
वह अलेपकृत भक्तपानक लेता है। सात पिण्डेषणाओं में प्रथम तीन का वर्जन कर शेष चार में से किसी भी पिण्डैषणा का ग्रहण कर सकता है। जो प्रावरणवर्जी है (प्रावरण लेने का अभिग्रह है) उसके जघन्यतः नौ प्रकार की उपधि होती है । दूसरे के वह दस या बारह प्रकार की होती है। ८०५. बसहीए निम्गमणं,
हिंडतो सव्वभंडमादाय |
न य निक्खिवति जलादिसु,
जत्य से सूरो वयति अत्यं ॥ वसति से बाहर निर्गमन करने पर अपने समस्त भांडउपकरणों को लेकर घूमे। कहीं उनका निक्षेप न करे। जाते हुए जहां भी जल, स्थल, कानन आदि में सूर्यास्त हो वहीं कायोत्सर्ग में स्थित हो जाए अथवा ऐसे ही ठहर जाए। एक पैर भी आगे न बढे।
८०६. मणसा वि अणुग्धाया, सच्चित्ते यावि कुणति उवदेसं । अच्चित्तजोग्गगडणं, भत्तं पंथो य ततियाए । मन, वचन और काया से उसे जो भी प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं, वे सारे अनुद्घात गुरु होते हैं। सचित्त का लाभ अर्थात् प्रब्रजित होने वाले का लाभ हो तो उसे वह केवल उपदेश ही दे, प्रवजित १. नौ प्रकार की उपधि- १ पात्र २. पात्रबंध ३. पात्रस्थापन ४. पात्रकेसरिका ५. पटल ६. रजस्त्राण ७. गोच्छग ८ मुखवस्त्रिका ९. रजोहरण । १०-१२ तीन सौत्रिक कल्प ।
२. जैसे सूत्र का एक खंड है- 'एगल्लविहारपडिमं उवसंपज्जित्ताणं
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सानुवाद व्यवहारभाष्य न करे। जो अचित्त अर्थात् भक्त-पान का लाभ हो तो वह उसे ग्रहण करे । विहार तीसरे प्रहर में करे ।
८०७. एमेव गणायरिए, गणनिक्खिवणम्मि नवरिं नाणत्तं ।
पुव्वोवहिस्स अडवा, निक्खिवणपुव्वगहणं तु ॥ प्रतिमा प्रतिपत्ति की जो विधि भिक्षुक के लिए कथित है। वही विधि गणावच्छेदी, आचार्य तथा उपाध्याय के लिए है। उसमें नानात्व यही है कि गणाच्छेवी अपने गणावच्छेदित्य का निक्षेपण कर देता है। आचार्य अन्य गणधर को स्थापित कर प्रतिमा स्वीकार करता है। अथवा यह नानात्व है-गणावच्छेवी और आचार्य पूर्वगृहीत उपधि का निक्षेप कर अन्य उपधि को ग्रहण करते हैं।
८०८. तिरियमुब्भाम णियोग, दरिसणं साधु सण्णि वप्पाहे । दंडिग मोहग असती सावगसंघो व सक्कारं ॥ प्रतिमा सम्पन्न कर भिक्षु उद्भ्रामक नियोग-जहां अनेक भिक्षाचार आते जाते हों, उस ग्राम में जाता है और साधु अथवा संज्ञी - सम्यदृष्टि श्रावक को अपनी प्रतिमा सम्पन्न की बात कहता है। तब आचार्य राजा को यह बात कहकर उसका सत्कार कराते हैं। राजा के अभाव में भोजिक-नगरनायक, उसके अभाव में श्रावकवर्ग, अथवा साधु संघ से उसका सत्कार करवाते हैं और पूर्ण ठाट-बाट के साथ उसको गच्छ में प्रवेश करवाते हैं। ८०९. उवभावणा पवयणे, सद्भाजणणं तहेव बहुमाणो ।
ओहावणा कुतित्थे, जीतं तह तित्यवुडी य ॥ प्रवेश- सत्कार से प्रवचन की उद्भावना होती है, अनेक साधुओं में श्रद्धा पैदा होती है तथा अन्यान्य व्यक्तियों में बहुमान का भाव उद्भूत होता है । कुतीर्थ की अपभ्राजना- हीलना होती है। प्रतिमा अनुष्ठान की समाप्ति पर मुनि की सत्कार - पूजा करना जीतकल्प है। वह तीर्थ की वृद्धि का कारण बनता है । ८१०. एतेण सुत्त न गतं सुत्तनिवातो इमो उ अव्वत्ते ।
उच्चारितसरिसं पुण, परूवितं पुव्व भणितं पि ॥ पूर्व में जो परिकर्म आदि विषय प्रतिपादित किया गया वह तीन सूत्रों में व्याख्यात नहीं है। वह विषय इन सूत्रों में नहीं है। वह सूत्रनिपात अव्यक्त विषयक था। प्रश्न होता है यह विषय कहां से आया? समाधान में कहा गया- 'उच्चारिय सरिसं' अर्थात् पूर्व में आचारदशा में भिक्षुप्रतिमा के संदर्भ में जो प्ररूपित था, उसी का सदृश अनुगमन किया गया है। २
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विहरित्तए' - यह व्यक्त-अव्यक्त दोनों के लिए समानरूप से लागू होता है । यद्यपि सकलसूत्रनिपात अव्यक्त विषयक है, फिर भी इस सूत्रखंड के आधार पर व्यक्त विषयक परिकर्म की बात कहना अनुचित नहीं है।
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