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पहला उद्देशक
पुरिस
में है।
९४२. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। भंभी, मासुवृक्ष, माढर द्वारा प्रणीत नीति शास्त्र तथा कौंडिन्य
पुरिसा कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि रज्जम्मि॥ द्वारा रचित दंडनीति में कुशल हो तथा जो रिश्वत न लेता हो ९४३. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। और पक्षग्राही न हो वह रूपयक्ष अर्थात् मूर्तिमान् धर्म जैसा है।
महिला कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि रज्जम्मि॥ ९५३. तत्थ न कप्पति वासो, गुणागरा जत्थ नत्थि पंच इमे। ९४४. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। आयरिय-उवज्झाए, पवित्ति-थेरे य गीतत्थे।
पुरिसा कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि नगरम्मि॥ मुनि को भी उस गण में नहीं रहना चाहिए जहां गुणों के ९४५. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। आकर ये पांच पुरुष न हों-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर
महिला कयवित्तीया, वसंति नियगम्मि नगरम्मि॥ और गीतार्थ। ९४६. सूयग तहाणुसूयग, पडिसूयग सव्वसूयगा चेव। ९५४. सुत्तत्थतदुभएहिं उवउत्ता नाण-दसण-चरित्ते।
पुरिसा कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे रणो॥ गणतत्तिविप्पमुक्का, एरिसया होति आयरिया॥ ९४७. सूयिग तहाणुसूयिग, पडिसूयिग सव्वसूयिगा चेव। ९५५. एगग्गया य झाणे, वुड्डी तित्थगरअणुकिती गुरुया।
महिला कयवित्तीया, वसंति अंतेउरे रण्णो।। आणायेज्जमिति गुरू, कयरिणमोक्खो न वाएति॥
इसी प्रकार सभी सामंतनगरों, अपने राज्य में, अपने नगर जो सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ से सहित हों, जो ज्ञान, दर्शन में तथा राजा के अंतःपुर में सूचक, अनुसूचक, प्रतिसूचक तथा और चारित्र में उपयुक्त हो, गणतप्ति-गणचिंता से विप्रमुक्त हों, सर्वसूचक ये चारों प्रकार के पुरुष और महिलाएं मासिक वृत्ति जिनकी ध्यान में एकाग्रता सधी हुई हो, जिनके पर नियुक्त होती हैं। इनका कार्य ९३८,९३९ श्लोक के टिप्पण को प्राप्त हो, जो तीर्थंकरानुकृति वाले हों, जो गुरुतायुक्त हों, जो
आज्ञास्थैर्य के संपादन वाले हों-वे इन हेतुओं से ऋण-मुक्त हो ९४८. पच्चंते खुब्भंते, दुईते सव्वतो दमेमाणो। जाते हैं, इसलिए वे सूत्र की वाचना नहीं देते, केवल अर्थ ही ___ संगामनीतिकुसलो, कुमार एतारिसो होति॥ वाचना देते हैं।
कुमार ऐसा होता है जो सीमांतवर्ती प्रजा को क्षुब्ध करने ९५६. सुत्तत्थतदुभयविऊ, उज्जुत्ता नाण-दसण-चरित्ते। वाले दुर्दात शत्रुओं का सभी दिशाओं में दमन करने वाला और निप्फादगसिस्साणं, एरिसया होतुवज्झाया।। संग्रामनीति में कुशल हो।
जो सूत्र, अर्थ और तदुभय के ज्ञाता हों, जो ज्ञान-दर्शन ९४९. अम्मापितीहि जणियस्स, तस्स आतंकपउरदोसेहिं। और चारित्र में उद्यमशील हों, जो शिष्यों के निष्पादक हों (उनको
वेज्जा देति समाधि, जहिं कता आगमा होति॥ सूत्र की वाचना देने वाले हों) वे उपाध्याय होते हैं।
माता-पिता द्वारा जनित आतंक रोगों से जो प्रचुर दोष ९५७. सुत्तत्थेसु थिरतं, रिणमोक्खो आयतीयपडिबंधो। उत्पन्न होते हैं, उनसे ग्रस्त पुरुषों को वैद्यक शास्त्रों के पारगामी पाडिच्छा मोहजओ, तम्हा वाए उवज्झाओ। वैद्य समाधिस्थ कर देते हैं, नीरोग कर देते हैं।
उपाध्याय शिष्यों को इसलिए वाचना देते हैं कि उनके ९५०. कोडिग्गसो हिरण्णं,मणि-मुत्त-सिल-प्पवाल-रयणाई। स्वयं सूत्र और अर्थ में स्थिरता आ जाती है। वाचना देने से
अज्जय-पिउ-पज्जामय, एरिसया होति धणमंता॥ ऋणमोक्ष होता है। भविष्य में आचार्य पद का अप्रतिबंध होता है। जिनके पास परदादा, दादा और पिता द्वारा अर्जित कोटि- वे आचार्य पद योग्य हो जाते हैं। प्रातीच्छक शिष्य (गणांतर से संख्यांक हिरण्य, मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल, रत्न आदि होते हैं, आए हुए) अनुगृहीत होते हैं। वाचना प्रदान से मोहजय सधता है। वे धनवान होते हैं।
९५८. तव-नियम-विणयगुणनिहि, ९५१. सणसत्तरमादीणं, धन्नाणं कुंभकोडिकोडीओ।
पवत्तगा नाण-दसण-चरित्ते। जेसिं तु भोयणट्ठा, एरिसया होंति नेवतिया॥ संगहुवग्गहकुसला, जिनके पास भोजनार्थ और दानार्थ सण आदि सतरह प्रकार
पवत्ति एतारिसा होति॥ के धान्यों की कुंभकोटि-कोटियां हों वह नैयतिक होता है।२ ९५९. संजम-तव-नियमेसुं, जो जोग्गो तत्थ तं पवत्तेति। ९५२. भंभीय मासुरुक्खे, माढरकोडिण्णदंडनीतीसु। असहू य नियत्तेती, गणतत्तिल्ला पवत्तीओ॥
अधऽलंचऽपक्खगाही, एरिसया रूवजक्खा तु॥ प्रवर्ती अथवा प्रवर्तक वह होता है जो तप, नियम, विनय१. सतरह प्रकार के धान्य-शालि, यव, कोद्रव, ब्रीहि, रालक, तिल, अतसी तथा सण।
मूंग, माष, चवला, चना, तुवरी, मसूरक, कुलत्थ, गेहूं, निष्पाव,
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