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पहला उद्देशक
सागारिकपिंड-शय्यातरपिंड ग्रहण करने में, स्थापनाकुलों में प्रवेश करने में, पर्यंक का परिभोग करने में-इनमें क्या दोष है। घरों में निषद्या करने पर धर्मश्रवण से प्रभूत गुण उत्पन्न होते हैं।
गृही के पात्र में भोजन करने से प्रवचन का उड्डाह नहीं होता। निग्रंथियों के उपाश्रय में बैठने से कौनसा दोष है? वहां बैठने से जो दोष होते हैं वे तो अन्य स्थानों में बैठने से भी हो सकते हैं।
मासकल्प का प्रतिषेध क्यों ? तिर्यंच आदि का बहुविध दोष होता है। सूत्र और अर्थ की परिहानि होती है तथा संयम की विराधना होती है। वैराज्य में विहरण करने में कौनसा दोष है? मनि ने यथार्थरूप में देह को छोड़ ही दिया। प्रथम समवसरण (प्रथम वर्षावास) में प्रासुक वस्त्र, पात्र लेने में क्या दोष है ? नित्यवास में नित्यपिंड लेने में क्या दोष है ?
शून्य वसति में यदि उपधि का उपघात न हो तथा प्राणवध आदि न हो तो वसति को शून्य करने में क्या दोष है ? वसति को अशून्य करने पर भी उपघात हो सकता है। ८६९. किंवा अकप्पिएणं गहियं फासुं तु होति अब्भोज्ज।
अन्नाउंछं को वा, होति गुणो कप्पिते गहिते॥
अकल्पिक-अगीतार्थ द्वारा गृहीत प्रासुक भक्त-पान अभोज्य कैसे हो जाता है और कल्पिक द्वारा गृहीत उञ्छ भोज्य कैसे हो जाता है ? कल्पिक द्वारा गृहीत में कौन सा गुण उत्पन्न हो जाता
८७२. जिणवयणसव्वसारं, मूलं संसारदुक्खमोक्खस्स।
सम्मत्तं मइलेत्ता, ते दुग्गतिवडगा होति।
वे यथाच्छंदी मुनि जिन वचन के सर्वसारभूत तथा सांसारिक दुःख के विमोचक मूल कारणभूत सम्यक्त्व को मलिन कर दुर्गति को बढ़ाने वाले होते हैं। ८७३. सक्कमहादीया पुण पासत्थे ऊसवा मुणेयव्वा।
अधछंद ऊसवो पुण, जीए परिसाय उ कधेति॥ पार्श्वस्थ के ये उत्सव माने जाते हैं-इंद्रमह, रुद्रमह आदि। यथाच्छंद के वे उत्सव होते हैं जो वह परिषद् में कहता है। ८७४. जधि लहुगो तधि लहुगा,
जधि लहुगा चउगुरू तधिं ठाणे। जधि ठाणे चउगुरुगा,
छम्मासा ऊ तहिं जाणे॥ ८७५. जधियं पुण छम्मासा, तहि छेदो छेदठाणए मूलं।
पासत्थे जं भणियं, अहछंद विवड्डियं जाणे।।
पार्श्वस्थ के जहां एक लघुमास का प्रायश्चित्त है वहां यथाच्छंद के चार लघुमास, जहां चार लधुमास हैं वहां यथाच्छंद के चार गुरुमास,जहां चार गुरुमास हैं वहां यथाच्छंद के छह गुरुमास, जहां छह गुरुमास हैं वहां यथाच्छंद के छेद, जहां छेद वहां मूल। पार्श्वस्थ के लिए जो प्रायश्चित्त का विधान है वहां यथाच्छंद को उससे प्रवर्धित प्रायश्चित्त आता है। ८७६. पासत्थे आरोवण, ओहविभागेण वण्णिता पुव्वं ।
सच्चेव निरवसेसा, कुसीलमादीण णेयव्वा ।।
पहले पार्श्वस्थ के प्रायश्चित्त का ओघ तथा विभाग से आरोपणा का वर्णन किया गया था। वही प्रायश्चित्त विधान कुशील आदि के लिए निरवशेष जानना चाहिए। ८७७. एत्तो तिविधकुसीलं, तमहं वोच्छामि आणुपुव्वीए।
दसण-नाण-चरित्ते, तिविध कुसीलो मुणेयव्वो।। ८७८. नाणे नाणायारं, जो तु विराधेति कालमादीयं ।
दंसणे दंसणायारं, चरणकुसीलो इमो होति ।।
मैं कुशील के तीन प्रकारों को क्रमशः कहूंगा। दर्शनकुशील, ज्ञानकुशील और चारित्रकुशील-ये तीन प्रकार के कुशील होते हैं। जो काल आदि ज्ञानाचार की विराधना करता है वह ज्ञानकुशील
और जो दर्शनाचार की विराधना करता है वह दर्शन कुशील होता है। चरणकुशील यह होता है८७९. कोउगभूतीकम्मे, परिणाऽपसिणे निमित्तमाजीवी।
कक्क-कुरुया य लक्खण, उवजीवति मंत-विज्जादी। ही होता है। अतः पार्श्वस्थ विषयक सूत्र त्रिसूत्रात्मक और यथाच्छंदविषयक केवल एकस्वरूप होता है। (वृत्ति पत्र ११६)
८७०. पंचमहव्वयधारी, समणा सव्वे वि किं न मुंजंति।
इय चरणवितधवादी, एत्तो वोच्छं गतीसुं तु॥
सभी पांच महाव्रतधारी श्रमण क्या भोजन नहीं करते? सभी सांभोगिक हैं। इस प्रकार चरणविषयक वितथवादी यथाच्छंद बताया गया। अब गतिविषयक वितथवादी यथाच्छंद का कथन करूंगा। ८७१. खेत्तं गतो उ अडविं, एक्को संचिक्खती तहिं चेव।
तित्थकरो त्ति य पियरो, खेत्तं पुण भावतो सिद्धी॥
गति (मनुष्य गति आदि) विषयक वितथ प्ररूपणा-एक कृषक के तीन पुत्र थे। एक खेत में जाता। एक जंगल में यत्र-तत्र घूमता रहता, एक घर पर ही बैठा रहता है। पिता के मर जाने पर सबको समान संपत्ति प्राप्त होती है। इसी प्रकार तीर्थंकर पितृस्थानीय हैं, क्षेत्रफल है भावतः सिद्धिगमन। तुम्हारे द्वारा-
अन्य श्रमणों द्वारा उपार्जित सिद्धि में हमारा भी संभाग है। (ऐसे यथाच्छंद कहता है।) १. पूछा गया कि यथाच्छंद को अधिक प्रायश्चित्त क्यों ? वृत्तिकार कहते हैं कि कुप्ररूपणा अतिदोषवाली होती है। पार्श्वस्थत्व तीन में होता है-भिक्षु, गणावच्छेदक तथा आचार्य। यथाच्छंदत्व केवल भिक्षु में
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