________________
पहला उद्देशक
ग्लान जीवन के प्रति सापेक्ष होता है और भक्तप्रत्याख्यानी ७५५. उव्वत्तणा य पाणग, धीरवणा चेव धम्मकहणां य। निरपेक्ष होता है। यदि दोनों का वैयावृत्त्य करने में असमर्थ हो तो अंतो बहि नीहरणं, तम्मि य काले णमोक्कारो॥ उत्क्रमकर अर्थात् भक्तप्रत्याख्यानी का उल्लंघन कर ग्लान का निर्यामक का कार्य है कि वह भक्तप्रत्याख्यानी को उद्वर्तन वैयावृत्त्य करना चाहिए।
(पार्श्व परावर्तन) कराए। उसे पानक दे। उसको धीरापणा-धैर्य ७५०. वसभे जोधे य तहा, निज्जामगविरहिते जहा पोते।। बंधाता रहे, धर्म का कथन करता रहे। उसे बाहर ले जाना, भीतर
पावति विणासमेवं, भत्तपरिण्णाय संमूढो॥ लाना आदि करे। मरणकाल में उसे नमस्कार मंत्र का संबल दे।
(यह क्यों कहा गया कि भक्तप्रत्याख्यानी का विशेष वैयावृत्त्य ७५६. जोच्चिय भेसिज्जंते, गमओ सो चेव भंसियाणं पि। करना चाहिए ?) इसका कारण यह है-जैसे सारथि रहित वृषभ, हेट्ठा अकिरियवादी, भणितो इणमो किरियवादी। सेनापति रहित योद्धा तथा निर्यामक रहित पोत विनाश को प्राप्त जो चारित्रभ्रष्ट होने के प्रसंग में गम बताए हैं, वे ही उत्प्रवजित हो जाते हैं वैसे ही योग्य निर्यामक के अभाव में भक्तप्रत्याख्यानी होने वाले मुनियों के लिए है। जो पहले अक्रियावादी अर्थात् परवादी संमूढ़ होकर विनष्ट हो जाता है।
के विषय में गम बतलाएं हैं वे ही गम यहां क्रियावादी के विषय में ७५१. नामेण वि गोत्तेण य, विपलायंतो वि सावितो संतो।। समझने चाहिए।
अवि भीरू वि नियत्तति, वसभो अप्फालितो पहुणा॥ ७५७. वादे जेण समाधी, विज्जागहणं च वादि पडिवखो।
वृषभ का दृष्टांत-सारथि रहित वृषभ अपने प्रतिवृषभ से न सरति विक्खेवेणं, निविसमाणो तहिं गच्छे।। पराजित होकर पलायन कर रहा हो और यदि प्रभु-सारथि उसको वाद करने वाले मुनि को जिससे समाधि उत्पन्न हो वह नाम और गोत्र से शापित-पुकारता है तथा स्वामी उसको प्रेम से सारा कार्य करना चाहिए। उसे वादी-विद्याओं की प्रतिपक्षीभूत पुचकारता है, उसके स्कंध-प्रदेश पर हाथ फेरता है तो भीरु। विद्याओं का ग्रहण कराना चाहिए। व्याक्षेपों के कारण आचार्य के वृषभ भी प्रतिवृषभ के साथ लड़ने के लिए लौट आता है। इसी यह स्मृतिपटल पर न हो कि यह मुनि परिहारतप का वहन कर प्रकार निर्यामक के द्वारा प्रोत्साहित होने पर मंद परिणाम वाला रहा है, अथवा विद्या, निमित्त आदि आचार्य की स्मृति में न हों तो भक्तप्रत्याख्यानी भी तीव्र परिणामयुक्त हो जाता है।
वह निर्विशमाण परिहारी ही वहां जाए। ७५२. अप्फालिया जह रणे, जोधा मंजंति परबलाणीयं। ७५८. वाया पोग्गललहुया, मेधा उज्जा य धारणबलं च।
गीतजुतो उ परिणी, तध जिणति परीसहाणीयं॥ तेजस्सिता य सत्तं, वायामइमम्मि संगामे ।।
योद्धा का दृष्टांत-रण में स्वामी द्वारा प्रोत्साहित और स्पष्टवाणी, शरीर की लधुता, मेधा, ऊर्जा, धारणाबल, प्रशंसित होने पर योद्धा शत्रु सेना का नाश कर देते हैं, इसी प्रकार तेजस्विता, सत्व-ये वाग्मय संग्राम में उपयोगी होते हैं। सम्यक निर्यामक के योग से भक्तप्रत्याख्यानी परिषहरूपी सेना ७५९. तत्थ गतो वि य संतो, पुरिसं थामं च नाउ तो ठवणा। को जीत लेता है।
साधीणमसाधीणे, गुरुम्मि ठवणा असहुणो उ॥ ७५३.सुनिउणनिज्जामगविरहियस्स पोतस्स जध भवे नासो। वहां जाकर भी वह पहले प्रतिवादी पुरुष को देखे, अपने
गीतत्थविरहियस्स उ. तहेव नासो परिण्णिस्स॥ स्थाम-शक्ति को जाने। यदि स्वयं को समर्थ माने तो परिहारतप
पोत का दृष्टांत जैसे सुनिपुण निर्यामक से रहित पोत विनाश का निक्षेप न करे और यदि असमर्थ माने तो परिहारतप का निक्षेप को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही गीतार्थ निर्यामक से रहित कर दे। यदि गुरु स्वाधीन सन्निहित हों तो गुरु से परिहारतप का भक्तप्रत्याख्यानी भी विनष्ट हो जाता है।
निक्षेप कराए और यदि अस्वाधीन-असन्निहित हों तो स्वयं ७५४. निउणमतिनिज्जामगो, पोतो जह इच्छितं वए भमि। उसका निक्षेप करे। गीतत्थेणुववेतो, तह य परिणी लहति सिद्धिं ।।
७६०. कामं अप्पच्छंदो, निक्खिवमाणो तु दोसवं होति। जैसे निपुणमति वाला निर्यामक अपने प्रवहण को यथेष्ट
तं पुण जुज्जति असढे, तीरितकज्जे पुण वहेज्जा। स्थान पर ले जाता है वैसे ही गीतार्थ निर्यामक के सहयोग से
जो निष्कारण ही अपनी स्वतंत्र बुद्धि से परिहारतप का भक्तप्रत्याख्यानी सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
निक्षेप करता है, वह अत्यंत दोषवान् होता है। यदि अशठभाव से
उसका निक्षेप किया जाता है तो कार्य समाप्ति पर उसका वहन १. वृत्तिकार के अनुसार ब्राह्मी आदि के प्रयोग से वाक्पटता. शरीर- है। घृत के प्रयोग से ऊर्जा तथा पटुता तथा देश या सर्वस्नान तथा
जाड्यापहारी औषधियों के प्रयोग से शरीर की लघुता, दूध तथा वस्त्रादिभूषा से तेजस्विता तथा प्रतिपक्षविद्या ग्रहण से महान् मानसिक प्रणीत आहार के भोजन से मेधा का विकास तथा धारणाबल बढ़ता अवष्टम्भ प्रास होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org