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पहले दिन उसे कुछ भी नहीं पूछते हैं तो उन्हें मासलघु का प्रायश्चित्त, दूसरे दिन न पूछने पर मासगुरु, तीसरे दिन भी न पूछने पर चार लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पूछने पर भी उपसंपद्यमान व्यक्ति यदि कुछ भी नहीं कहता है तो उसे क्रमशः ये ही प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। उसके कथन के पश्चात् आचार्य यह विमर्श करें कि यह शुद्ध है अथवा अशुद्ध अर्थात् उसका निर्गमन और आगमन शुद्ध है अथवा अशुद्ध । २४९. अधिकरण- विगतिजोगे, पडिणीए थद्ध - लुद्ध - निद्धम्मे । अलस- अणुबद्धवेरे, सच्छंदमती पयहियव्वे || यदि उपसंपद्यमान शिष्य में ये दोष हों तो वह परिहार करने योग्य है
१. अधिकरण- कलहकारी
२. विकृति प्रतिबद्ध
३. योगोद्वहन का भय ४. प्रत्यनीकता
८. अलसता
९. अनुबद्धवैरवाला
५. स्तब्धता
१०. स्वच्छंदमति
( इन कारणों से निगर्मन करने वाला अशुद्ध होता है।)
लहु गुरुगा तस्स अप्पणो छेदे । विगतिं न देइ घेत्तुं
भुत्तुव्वरितं च गहिते वि ।। जिस उपसंपद्यमान शिष्य ने अपने मूल स्थान से गृहस्थों से अथवा संयतों से कलह कर निर्गमन किया हो और यदि आचार्य गृहस्थ से अधिकरण करने वाले को स्वीकार करते हैं तो उनको चार लघुमास तथा संयतों से अधिकरण करने वाले को स्वीकार करते हों तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। अधिकरण कर आये हुए को पांच रात्रिदिवस का छेद प्राप्त होता है । विकृति दोष से निर्गत शिष्य कहता है-वहां आचार्य विकृति (घी आदि ) लेने नहीं देते। योगवाही मुनियों द्वारा भुक्तावशेष विकृति लेने की भी आज्ञा नहीं देते।
२५१. नववज्जियावदेहो, पगतीए दुब्बलो अहं भंते । ।
तब्भावितस्स एण्डिं, न य गहणं धारणं कत्तो ।। शिष्य आचार्य से कहता है-भगवन्! मेरा शरीर नए इक्षु की भांति है। (जैसे इक्षु पानी के बिना सूख जाता है, वैसे ही मेरा शरीर भी विकृति के बिना सुख जाता है ।) भंते! मैं प्रकृति से दुर्बल हूं। मेरा शरीर विकृति से भावित है। उसके बिना मैं सूत्र और अर्थ का ग्रहण तथा धारण कैसे कर सकता हूं। (जो कुछ मैंने सूत्रार्थ सीखा था वह पहले से ही भूल गया । इसलिए मैंने वहां से निर्गमन किया है।)
२५०. गिहि- संजय- अधिगरणे,
६. लुब्धता
७. क्रूरता
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सानुवाद व्यवहारभाष्य २५२. एगंतरनिव्विगती, जोगो पच्चत्थिगो व मे तत्थ ।
चुक्क - खलिते गेहति, छिद्दाणि कहेति य गुरूणं ।। उस गण में एकांतर निर्विकृतिक योग का पालन होता है। वहां का योगवहन कठिन है, इसलिए मैंने वहां से निर्गमन कर दिया। उस गच्छ में मेरा प्रत्यनीक भी है जो मेरी विस्मृत तथा स्खलित सामाचारी विषयक भूलों को ग्रहण कर मुझे खरंटित करता है तथा मेरे छिद्रों (दोषों) को गुरु को कहता है। मैंने इसीलिए वहां से निर्गमन कर डाला।
२५३. चंकमणादुट्ठाणे, कडिगहणं झाओ नत्थि थदेवं ।
भुंजति सयमुक्कोसं, न य देंतऽन्नेसि लुद्धेवं ।। स्तब्ध - अहंकारी शिष्य कहता है-आचार्य चंक्रमण आदि करते हों तो शिष्य को अभ्युत्थान करना चाहिए। ऐसे बार-बार उठने से कमर वायु से जकड़ जाती है, स्वाध्याय, ध्यान की हानि होती है। लुब्ध शिष्य कहता है-उस गण में आचार्य जो कुछ उत्कृष्ट पदार्थ आता है वह स्वयं खा लेते है, दूसरों को नहीं देते। मेरे निर्गमन का यही कारण है।
२५४. आवस्सिया - पमज्जण, अकरणता उग्गदंड निद्धम्मो ।
बालादट्ठा दीहा, भिक्खाचरिया य उब्भामा ।। निष्करुण शिष्य को पूछने पर कहता है-उस गण में आवश्यक, प्रतिलेखन आदि न करने पर आचार्य उग्र दंड देते हैं। इस क्रूरता के कारण मैंने निर्गमन किया है। आलसी शिष्य कहता है-उस गण में बालमुनियों तथा वृद्धों के लिए भिक्षाचर्या का काल बहुत दीर्घ है। उद्ग्राम अथवा भिक्षा प्रतिदिन ग्रामांतरों से लानी पड़ती है। (अपर्याप्त लाने पर गुरु बार-बार भेजते हैं, खरंटना करते हैं ।)
२५५. पाण-सुणगा व भुंजति, एगत्तो भंडिउं पि अणुबद्धो ।
गागिस्स न लब्भा, चलिउं थेवं पि सच्छंदो || अनुबद्धवैर वाला शिष्य कहता है-जिस गण से मैंने निर्गमन किया है वहां मुनि परस्पर कलह कर पाणशुनकचांडालों के कुत्तों की भांति परस्पर लड़-झगड़ कर एकत्र होकर खा लेते हैं। स्वच्छंदमति वाला कहता है-मैं उस गण में एकाकी कहीं भी आ-जा नहीं सकता। वहां थोड़ी भी स्वच्छंदता नहीं है। इसलिए यहां आया हूं।
२५६. जइ भंडण पडिणीए, लब्दे, अणुबद्धरोस चउगुरुगा ।
सेसाण होंति लहुगा, एमेव पडिच्छमाणस्स ।। जो उपसंपद्यमान शिष्य मुनियों से कलह कर आया है, साधुओं को प्रत्यनीक मानकर आया है, लोलुपतावश आया है, अनुबद्ध रोष से आया है इन सबको चार गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। शेष कारणों से आनेवालों को चार लघुमास
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