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पहला उद्देशक ४६८. इत्तरिसामाइय छेद संजम तह दुवे नियंठा य।
बउस-पडिसेवगाओ, अणुसज्जंते य जा तित्थ ।।।
जब तक मूलगुणों और उत्तरगुणों का अस्तित्व है, जब तक इत्वरिक सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयम है, तब तक दो प्रकार के निर्ग्रन्थ-बकुश और प्रतिसेवक हैं। (मूलगुणों की प्रतिसेवना से प्रतिसेवक तथा उत्तरगुणों की प्रतिसेवना से बकुश का अस्तित्व रहता है। जब तक तीर्थ है तब तक बकुश और प्रतिसेवक निर्ग्रन्थों का अस्तित्व है। ४६९. मूलगुणदतिय-सगडे, उत्तरगुण मंडवे सरिसवादी ।
छक्कायरक्खणट्ठा, दोसु वि सुद्धे चरणसुद्धी ।।
मूलगुण विषयक दो दृष्टांत हैं-दृति और शकट। उत्तरगुण विषयक दृष्टांत है-मंडप पर सरसों आदि। षट्जीवनिकाय की रक्षा से ही मूलगुण और उत्तरगुण शुद्ध होते हैं। दोनों के शुद्ध होने पर चरणशुद्धि होती है।
दृति का दृष्टांत-एक दृति-(मशक) में पानी भरा हुआ है। उसके पांच द्वार हैं। यदि एक द्वार भी खोल दिया जाए तो दृति रिक्त हो जाती है। इसी प्रकार एक महाव्रत के दंश से समस्त चारित्र का भ्रंश हो जाता है। 'एकव्रतभंगे सर्वव्रतभंगः'। कुछ आचार्य मानते हैं कि चौथा महाव्रत टूटने पर तत्काल चारित्र नष्ट हो जाता है। शेष महाव्रतों में बार-बार दोष लगाने से चारित्रभ्रंश होता है।
शकट के मूल अंग हैं-दो चक्के, उद्धी और अक्ष। उत्तर अंग हैं-कील आदि अन्य अंग। शकट के मूल अंग मूलगुण के समान हैं और उत्तर अंग उत्तरगुण के समान। शकट का एक मूलांग टूटने पर शकट भारवाही नहीं होता। उत्तरांगों के टूटने पर वह कुछ काल तक भारवाही हो सकता है। इसी प्रकार साधु का एक मूलगुण नष्ट होने पर वह अष्टादशशीलांगसहस्र के भार को वहन नहीं कर सकता। उत्तरगुणों के खंडन से प्रायश्चित्त लेकर वह शुद्ध होता जाता है।
एक व्यक्ति ने एरंड का मंडप बनाया। उस पर सौ-पचास सरसों के दाने आदि डालने से वह टूटता नहीं और यदि उस पर अधिक भार डाला जाये तो वह टूट जाता है और महती शिला डाली जाए तो तत्काल वह गिर जाता है। उसी प्रकार चारित्र का मंडप दो-चार उत्तरगुणों के अतिचारों से टूटता नहीं। परंतु मूलगुणों के एक अतिचार से वह तत्काल टूट जाता है। ४७०. पिंडस्स जा विसोधी, समितीओ भावणा तवो दुविधो।
पडिमा अभिग्गहा वि य, उत्तरगुण मो वियाणाहि ।। १. असंचय में पहली बार उद्घात मास, दूसरी बार उद्घात चतुर्मास,
तीसरी बार उद्घात षण्मास, चौथी से छठी बार छेद, सातवीं से नौवीं बार मूल, दसवीं से बारहवीं बार अनवस्थाप्य और अंतिम
पिंडविशोधि, समितियां, भावना (महाव्रतों की), दो प्रकार का तप, प्रतिमाएं (भिक्षु की १२), अभिग्रह-इन सबको उत्तरगुण जानो। ४७१. बायाला अद्वैव य, पणुवीसा बार बारस उ चेव ।
दव्वादि चउरभिग्गह, भेदा खलु उत्तरगुणाणं ।।
पिंडविशोधि के ४२ प्रकार, समितियां आठ, भावनाएं पच्चीस, तप के बारह भेद, अभिग्रह के द्रव्य आदि चार भेद-ये उत्तरगुणों के भेद हैं। ४७२. निग्गयवस॒ता वि य, संचइता खलु तहा असंचइता ।
एक्केक्काए दुविधा, उग्घात तहा अणुग्धाता ।।
जो निग्रंथ प्रायश्चित्त का वहन करते हैं वे दो प्रकार के हैं-निर्गत और वर्तमान। वर्तमान के दो प्रकार हैं-संचयिता और असंचयिता। इन दोनों के दो-दो भेद हैं-उद्घात (लघु) और अनुद्घात (गुरु)। ४७३. छेदादी आवण्णा, उ निग्गता ते तवा उ बोधव्वा ।
जे पुण वटृति तवे, ते वदि॒ता मुणेयव्वा ।। ४७४. मासादी आवण्णे, जा छम्मासा असंचयं होति ।
छम्मासाउ परेणं, संचइयं तं मुणेयव्वं ।।
जो छेद आदि प्रायश्चित्त को प्राप्त हैं वे निर्गत हैं अर्थात वे तप से निर्गत हैं। जो तपोर्ह प्रायश्चित्त में हैं वे वर्तमान है। एक मास से षट्मास पर्यंत प्रायश्चित्त स्थान असंचयित तथा षट्मास से अधिक प्रायश्चित्त संचयित कहलाता है। ४७५. मासादि असंचइए, संचइए छहि तु होति पट्ठवणा।
तेरसपदऽसंचइए, संचए एक्कारसपदाइं ।।
असंचयित प्रायश्चित्तस्थान की प्रस्थापना मास आदि की है। संचयित प्रायश्चित्तस्थान की प्रस्थापना षटमास की है। असंचयित प्रस्थापना के तेरह पद हैं और संचयित के ग्यारह पद
४७६. तवतिग छेदितिगं वा, मूलतिगं अणवट्ठाणातिगं च ।
चरमं च एक्कसरयं, पढमं तववज्जियं बितियं ।।
असंचय में उद्घात मासादिक प्राप्त प्रायश्चित्त वाले के १३ पद-तपःत्रिक, छेदत्रिक, मूलत्रिक, अनवस्थाप्यत्रिक तथा चरम पारांचित। ये तेरह पद हैं। यह पहला असंचयपद है। दूसरा है संचयपद। वह आदि के दो तपों से वर्जित है।' ४७७. बितियं संचइयं खलु, तं आदिपएहि दोहि रहियं तु ।
छम्मासतवादीयं, एक्कारसपदेहि चरमेहिं ।।
दूसरा पद है संचयित। वह प्रथम दो पदों-तपों से रहित होता है। उसमें पहला है-षण्मास का तप। चरम में वह एकादश
तेरहवीं बार पारांचित। इसी प्रकार अनुद्घाति असंचय में भी ये ही १३ पद वक्तव्य हैं।
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