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सानुवाद व्यवहारभाष्य (इस स्थिति में यह यतना दी जा सकती है। वहां के ६७७. एमेव य पडिसिद्धे, सण्णादिगतस्स किंचि पडिपुच्छा। वास्तव्य साधु बारी-बारी से जागते रहें। (यदि यह संभव न हो
तं पि य होढा असमिक्खिऊण पडिसेहितो जम्हा।। तो) जो प्राघूर्णक साधु अधिक परिश्रांत न हए हों उन्हें इसी इसी प्रकार गुरु ने किसी साधु को अभिशय्या में जाने का प्रकार बारी-बारी से जागरण के लिए कहे किंतु अभिशय्या आदि निषेध कर दिया। वह साधु संज्ञा आदि भूमि में गया और पूर्ववत् में गमन न करे।
स्थिति आ गयी तो वह किसी वृषभ को पूछ लेता है। यह भी गुरु ६७२. एमेव य संसत्ते, देसे अगलंतए य सव्वत्था।
को पूछने जैसा है। वृषभ कहता है-असमीक्षा के कारण तुम्हारा अम्हवहा पाहुणगा, उवेति रिक्का उ कक्करणा॥
प्रतिषेध हुआ है, इसलिए गुरु कुछ कहेंगे तो हम उनको विश्वास इसी प्रकार प्राणीसंसक्त उपाश्रय में जिस प्रदेश में वह
दिला देंगे। असंसक्त हो, तथा जहां पानी न चूता हो,वैसे प्रदेश में यतनापूर्वक
६७८. जाणंति व णं वसभा, अधवा वसभाण तेण सब्भावो। रहे। यदि वसति सर्वत्र संसक्त हो अथवा पानी चू रहा हो तो
कहितो न मेत्थ दोसो, तो णं वसभा बला नेति॥ अभिशय्या में जाया जा सकता है। यह कहना कि ये प्राघूर्णक
वृषभ स्वयं उसे जानते हैं अथवा उसने वृषभों को यथार्थ
बात बता दी और कहा-मेरा कोई दोष नहीं है। यह सुनकर वृषभ रिक्त हैं, हमारे वध के लिए आये हैं, यह कक्करण भाषा है।
उसे बलात् अभिशय्या में ले जाते हैं। ६७३. बितियपयं आयरिए, निद्दोसे दूरगमणऽणापुच्छा।
६७९. अभिसेज्ज अभिनिसीहिय, पडिसेहिय गमणम्मी, तो तं वसभा बला नेति।।
एक्केक्का दुविध होंति नायव्वा। आचार्य विषयक यह द्वितीय पद अर्थात् अपवाद पद है।
एगवगडाय अंतो, क्षेत्र या स्थान निर्दोष है, अभिशय्या दूर है, वहां दूरगमन और
बहिया संबद्धऽसंबद्धा ।। अनापृच्छा तथा प्रतिषेधित स्थान के गमन में यदि वृषभ मुनि
अभिशय्या और अभिनषेधिकी-प्रत्येक के दो-दो प्रकार आचार्य को बलात् ले जायें तो आचार्य वहां जाते हैं।
हैं-वसति के परिक्षेप के भीतर तथा एक बाहर। प्रत्येक ६७४. जत्थ गणी न वि णज्जति,
अभिशय्या संबद्ध तथा असंबद्ध-दो प्रकार की होती है। भद्देसु य जत्थ नत्थि ते दोसा।
६८०. जा सा तु अभिनिसीधिय, तत्थ वयंतो सुद्धो,
सा नियमा होति तू असंबद्धा। इयरे वि वयंति जयणाए। संबद्धमसंबद्धा, जहां 'ये आचार्य हैं', ऐसी पहचान नहीं होती, जहां भद्रक
अभिसेज्जा होति नायव्वा॥ लोगों में अपवाद नहीं होता, जहां स्त्री आदि समुत्थ दोष नहीं जो अभिनषेधिकी होती है, वह नियमतः असंबद्ध होती है। होते, वैसी अभिशय्या में जाते हुए आचार्य शुद्ध हैं। दूसरे भी जो अभिशय्या संबद्ध और असंबद्ध-दोनों प्रकार की जाननी यतनापूर्वक जाते है, वे भी शुद्ध हैं।
चाहिए। ६७५. वसधीय असज्झाए, सण्णादिगतो य पाहणे द8।। ६८१. धरमाणच्चिय सूरे, संथारुच्चार-कालभूमीओ।
सोउं च असज्झायं, वसधिं उति भणति अन्ने।। पडिलेहितऽणुग्णाविते, वसभेहि वयंतिमं वेलं॥ ६७६. दीवेध गुरूण इम, दूरे वसही इमो वियालो य। अभिशय्या के शय्यातर की आज्ञा लेकर सूर्यास्त से पूर्व संथार-काल-काइयभूमी पेहट्ठ एमेव॥
अभिशय्या में संस्तारक, उच्चार तथा कालभूमि की प्रत्युपेक्षा वसति में अस्वाध्यायिक है, स्वयं संज्ञाभूमि में गया है,
कर उसी वेला में पुनः वसति में लौट आते हैं। प्राघूर्णक साधुओं को आते देखकर, अथवा संज्ञाभूमि में गया
६८२. आवस्सगं तु काउं, निव्वाघातेण होति गंतव्वं । हुआ वह सुनता है कि वसति में अस्वाध्यायिक हो गया है तो वह
वाघातेण तु भयणा, देसं सव्वं वऽकाऊणं ।। गुरु को बिना पूछे ही अभिशय्या में चला जाता है और जो वसति
वसति में आचार्य के साथ आवश्यक कर नियाघात होने
पर पुनः अभिशय्या में जाएं। व्याघात होने पर गमन की भजना में जा रहे हैं उन्हें कहता है-तुम गुरु को निवेदित कर देना कि
है। वह यह है-देशतः आवश्यक न करके अथवा सर्वतः आवश्यक बसति से अभिशय्या दूर है और यह विकाल वेला है अतः
न करके। आपको बिना पूछे ही मैं संस्तारक भूमि, कालभूमि तथा
६८३. तेणा सावय वाला, गुम्मिय आरक्खि ठवण पडिणीए। कायिकीभूमि की प्रेक्षा के लिए अभिशय्या में गया हूं।
इत्थि-नपुंसग-संसत्त-वास-चिक्खल्ल-कंटे य॥
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