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पहला उद्देशक
व्याघात कौन-कौन से हैंस्तेन, श्वापद, व्याल, गौल्मिक', आरक्षक, स्थापना कहीं यह नियम हो कि सूर्यास्त के पश्चात् सड़कों पर कोई न घूमे, प्रत्यनीक- घात करने के लिए गुप्तस्थान में स्थित व्यक्ति, स्त्री तथा नपुंसक, प्राणियों से संसक्त मार्ग, वर्षा, पंकिल मार्ग, कंटकाकीर्ण मार्ग-इन व्याघात के कारणों से देशतः अथवा सर्वतः आवश्यक किये बिना ही अभिशय्या में चले जाते हैं।
६८४. थुतिमंगलकितिकम्मे, काउस्सग्गे य तिविधकितिकम्मे । तत्तो य पडिक्कमणे, आलोयण अकयकितिकम्मे ॥ स्तुतिमंगल, कृतिकर्म, तीन प्रकार का कायोत्सर्ग, कायोत्सर्ग के पूर्व किया जाने वाला कृतिकर्म, प्रतिक्रमण, आलोचना तथा पुनः कृतिकर्म - ये सब न करना या अधूरे करना देशतः आवश्यक न करना कहलाता है।
६८५. काउस्सग्गमकाउं,
कितिकम्मालोयणं जहण्णेणं ।
गमणम्मि उ एस विधी, आगमणम्मी विहिं वोच्छं । कायोत्सर्ग बिना किये अर्थात् समस्त आवश्यक किये बिना अभिशय्या में जाने की विधि यह है मुनि जघन्यतः कृतिकर्म अर्थात् सभी मुनियों को वंदना कर तथा आलोचना कर फिर अभिशय्या में जाए। अभिशय्या से लौटने की विधि बतलाऊंगा। ६८६. आवस्सगं अकाउं, निव्वाघारण होति आगमणं ।
वाघायम्मि उ भयणा, देसं सव्वं च काऊणं ॥ नियांचात होने पर आवश्यक किये बिना ही अभिशय्या से वसति में आगमन होता है। आकर गुरु के साथ आवश्यक करते हैं । व्याघात होने पर यह विकल्प है- देशतः अथवा सर्वतः आवश्यक करके आना होता है।
६८७. काउस्सग्गं काउं, कितिकम्मालोयणं पढिक्कमणं । कितिकम्मं तिविद्धं वा काउस्सग्गं परिण्णाय ॥ देशतः आवश्यक की सीमा-एक, दो, तीन कायोत्सर्ग करना, फिर कृतिकर्म, फिर आलोचना और प्रतिक्रमण, तदनंतर तीन कृतिकर्म, फिर कायोत्सर्ग तथा प्रत्याख्यान करना - यह देशतः आवश्यक है।
६८८. थुतिमंगलं च काउं, आगमणं होति अभिनिसेज्जाओ । बितियपदे भयणा ऊ गिलाणमादीसु कायव्या ॥ प्रत्याख्यान के बाद स्तुति-मंगल कर अभिशय्या से प्रत्यागमन होता है (गुरु के समीप ज्येष्ठ मुनि आलोचना कर प्रत्याख्यान ग्रहण करता है। फिर शेष मुनि आलोचना- प्रत्याख्यान तथा वंदनक देते हैं।) अपवाद में ग्लान आदि विषयक भजना है।
१. ये सामूहिक रूप से नगर में घूमते हैं। ये आरक्षकों से विशेष होते हैं।
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६८९. गेलण्णवास महिया, पदुट्ठ अंतेपुरे निवे अगणी ।
अधिगरण हत्थिसंभम, गेलण्ण निवेयणा नवरिं ॥ ग्लान के कारण, वर्षा, मिहिका, मार्ग में प्रद्विष्ट बैठा हो, राजा का अंतःपुर बाहर निकला हो, राजा ने यह घोषणा करवाई हो - कोई पुरुष सड़कों पर न घूमे, अथवा राजा की सवारी आ रही हो, मार्ग में आग लगी हो, कलह हो गया हो, हस्तीसंभ्रमहाथी आलान तोड़कर निकल गया हो-इन कारणों से अभिशय्या से मूल वसति में नहीं आते। इनमें आगाढ़ ग्लानत्व हो जाने पर गुरु को निवेदन करना चाहिए।
६९०. परिहारो खलु पगतो, अदिन्नगं वावि पावपरिहारं ।
सक्खेत्तनिग्गमो वा, भणितो इमगं तु दूरे वि॥ प्रस्तुत में परिहार का ही प्रसंग है। पूर्व सूत्र में यह कहा गया था कि स्थविरों द्वारा अननुज्ञात अभिशय्या अथवा नैषेधिकी जाता है तो वह परिहार को प्राप्त होता है। पूर्व सूत्र में प्रत्यासन्न अभिशय्या विषयक चर्चा थी। प्रस्तुत में दूर निर्गमन की बात है। ६९१. पडिहारियगहणेणं,
भिक्खुम्गणं ति होति किं न गतं । किं च गिहीण वि भण्णति,
गणि आयरियाण पहिसेचो |
पारिहारिक के ग्रहण से क्या भिक्षु का ग्रहण नहीं हो जाता ? क्या गृहस्थों के भी पारिहारिकत्व होता है? (इसलिए भिक्षु का ग्रहण निरर्थक है ।) आचार्य कहते हैं-गणी और आचार्य का प्रतिषेध करने के लिए भिक्षु का ग्रहण किया गया है। ६९२. वेयावच्बुज्जमणे, गणि आयरियाण किण्णु पहिसेघो ।
भिक्खुपरिहारिओ वि हु, करेति किमुतायरियमादी ॥ शिष्य कहता है- वैयावृत्त्य में उद्यम करने के प्रसंग में गणी और आचार्य का प्रतिषेध क्यों किया गया ? पारिहारिक भिक्षु भी संघवैयावृत्त्य करता है तो फिर आचार्य आदि क्यों नहीं करते ? ६९३. जम्हा आयरियादी निक्खिविऊणं करेति परिहारं ।
तम्हा आयरियादी, वि भिक्खुणो होंति नियमेणं ॥ आचार्य आदि जब परिहारतप का वहन करते हैं तब उतने काल तक वे अपने पद से मुक्त होकर नियमतः भिक्षु की भूमिका में आ जाते हैं।
६९४. परिहारिओ उ गच्छे, सुत्तत्थविसारओ सलद्धीओ |
अन्नेसिं गच्छाणं, इमाइ कज्जाइ जायाई ॥ ६९५ अकिरिय जीए पितॄण, संजमबद्धे य लब्भऽलब्धंते।
भत्तपरिण्णगिलाणे, संजमऽतीते य वादी य॥ २. गणी का अर्थ है-गच्छाधिपति और आचार्य का अर्थ हैअनुयोगाचार्य - उपाध्याय ।
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