________________
पहला उद्देशक
६७
आलोचनाह सिंहानुग भिक्षु के समक्ष आलोचना करने आलोचना करने पर छह लघुमास। क्रोष्टानुग के समक्ष क्रोष्टानुग वाले आचार्य के लिए विहित प्रायश्चित्त-सिंहानुगता से चार बनकर आलोचना करने पर चार गुरुमास। यह सदृश आसन पर गुरुमास, वृषभानुगता से चार लघुमास तथा कोष्टानुगता से बैठकर आलोचना करने का प्रायश्चित्त है। उत्कटुक होकर 'शुद्ध।
आलोचना करना शुद्ध है। वृषभानुग भिक्षु के समक्ष-सिंहानुगता से छह लघुमास, ५९६. सव्वत्थ वि समासणे, आलोएंतस्स चउगुरू होति। वृषभानुगता से चार गुरुमास, क्रोष्टानुगता से शुद्ध।
विसमासण नीयतरे अकारणे अविहिए मासो।। क्रोष्टानुग भिक्षु के समक्ष-सिंहानुगता से छह गुरुमास, सर्वत्र-सिंहानुग, वृषभानुग तथा क्रोष्टानुग के सम आसन वृषभानुगता से चार लघुमास तथा क्रोष्टानुगता से एक लघु- पर बैठकर आलोचना करने वाले को चार गुरुमास का मास। उत्कटुक स्थिति में आलोचना करने वाला शुद्ध। तीनों प्रायश्चित्त आता है। विषम आसन पर नीचे बैठकर आलोचना प्रकार के भिक्षुओं के पास आलोचना करने वाले आलोचक करता है तो उसे लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। यह बिना वृषभ नौ प्रकार के होते हैं।
कारण बैठने पर तथा आलोचना काल में अप्रमार्जना आदि के ५९३. दोहि वि गुरुगा एते, गुरुम्मि नियमा तवेण कालेणं।। होने पर प्रत्येक के लिए यह प्रायश्चित्त विहित है।
वसभम्मि य तवगुरुगा, कालगुरू होंति भिक्खुम्मि॥ ५९७. मासादी पट्ठविते, जं अण्णं सेवती तगं सव्वं । ये प्रायश्चित्त आचार्य के प्रति दोनों ओर से-तप से और
साहणिऊणं मासा, छद्दिज्जंते परे झोसो।। काल से गुरु होते हैं, वृषभ के प्रति तप से गुरु और काल से लघु प्रायश्चित्तकरण की प्रस्थापना करने के बाद यदि तथा भिक्षुओं के प्रति तप से लघु और काल से गुरु होते हैं। आलोचक दूसरे मास आदि की प्रतिसेवना करता है तो सबको ५९४. सव्वत्थ वि सट्ठाणं, अमुंचमाणस्स मासियं लहुयं । एकत्र मिलाकर उसे छहमास का प्रायश्चित्त दिया जाता है।
परठाणम्मि य सुद्धो, जइ उच्चतरे भवे इतरो॥ उसके ऊपर के प्रायश्चित्त का झोष परित्याग कर दिया जाता
आलोचना करता हुआ भी यदि स्वस्थान' को नहीं छोड़ता। तो सर्वत्र अर्थात् आचार्यत्व, वृषभत्व, भिक्षुत्व स्थान में ५९८. दुविहा पट्ठवणा खलु, एगमणेगा य होतऽणेगा य। प्रायश्चित्त है मासिक लधु। इसका तात्पर्य है आलोचना
तवतिग परियत्ततिगं, तेरस ऊ जाणि य पदाणि ।। सिंहानुग आचार्य के पास सिंहानुग होकर ही आलोचना करता है प्रायश्चित्त प्रस्थापना दो प्रकार की होती है-एक और तथा वृषभानुग के समक्ष वृषभानुग होकर ही आलोचना करता है अनेक । अनेक प्रस्थापना ये हैं तपःत्रिक अर्थात् तपःस्थान तीन तथा क्रोष्टानुग के समक्ष क्रोष्टानुग होकर ही आलोचना करता है-पहला तपःस्थान-एक मासिक तपःस्थान, दूसर। तपःहै-इन तीनों स्थानों में प्रत्येक का प्रायश्चित्त है मासिक लघु। स्थान-द्वैमासिक से चतुःमासिक तपःस्थान तथा तीसरा यदि इतर अर्थात् आलोचनाह उच्चतरानुग हो तो आलोचना । तपःस्थान पंचमासिक षण्णमासिक तपःस्थान। करने वाला नीचतरानुग होकर आलोचना करता है तो वह शुद्ध परिवर्तत्रिक अर्थात् प्रव्रज्यापर्याय का परिवर्तन करने वाले
त्रिक-छेदत्रिक, मूलत्रिक तथा अनवस्थाप्यत्रिक तथा एक ५९५. चउगुरुगं मासो या, मासो छल्लहुग चउगुरू मासो।। पारांचित। तपःत्रिक, परिवर्तत्रिक के नौ भेद तथा पारांचित-ये
छग्गुरु छल्लहु चउगुरु, बितियादेसे भव सोही। अनेक प्रस्थापना के तेरह पद हैं। सिंहानुग के समक्ष सिंहानुग बनकर आलोचना करने पर ५९९. पट्ठविता ठविता या कसिणाकसिणा तहेव हाडहडा। चतुर्गुरु प्रायश्चित्त। सिंहानुग के समक्ष वृषभानुग बनकर आरोवण पंचविहा, पायच्छित्तं पुरिसजाते॥ आलोचना करने पर मासलघु। सिंहानुग के समक्ष क्रोष्टानुग आरोपणा के पांच प्रकार हैं-प्रस्थापिता, स्थापिता, बनकर आलोचना करने पर मासलघु। वृषभानुग के समक्ष कृत्स्ना , अकृत्स्ना तथा हाडहडा। यह पुरुष के लिए पांच प्रकार सिंहानुग बनकर आलोचना करने पर छह लघुमास। वृषभानुग का आरोपणा प्रायश्चित्त है। के समक्ष वृषभानुग बनकर आलोचना करने पर चार गुरुमास। ६००. पठ्ठविता य वहंते, वेयावच्चट्ठिता ठवितगा उ। वृषभानुग के समक्ष क्रोष्टानुग बनकर आलोचना करने पर कसिणा झोसविरहिता, जहि झोसो सा अकसिणा उ॥ लघुमास। क्रोष्टानुग के समक्ष सिंहानुग बनकर आलोचना करने जो आरोपित प्रायश्चित्त वहन करता है वह प्रस्थापिता पर छह गुरुमास। कोष्टानुग के समक्ष वृषभानुग बनकर आरोपणा है। वैयावृत्त्य करते हुए जो आरोपिता प्रायश्चिन वहन
१. स्वस्थान के दो अर्थ है-स्वोचित उपवेशन स्थान तथा सदृश स्थान अर्थात् आचार्य, वृषभ अथवा भिक्षु के साथ उसी तरह का स्थान ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org