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५७२. पडिसेवणा य संचय, आरुवणअणुग्गहे य बोधव्वे।
अणुघातनिरवसेसं, कसिणं पुण छव्विहं होति॥ ५७३. पारंचि सतमसीतं छम्मासारुवणछद्दिणगतेहिं।
कालगुरुनिरंतरं व, अणूणमधियं भवे छ8॥
कृत्स्न के छह प्रकार हैं-प्रतिसेवना कृत्स्न, संचयकृत्स्न, आरोपणाकृत्स्न, अनुग्रहकृत्स्न, अनुद्घातकृत्स्न और निरवशेषकृत्स्न ।
१. प्रतिसेवनाकृत्स्न-दूसरे के इससे आगे प्रतिसेवना के स्थान की असंभाव्यता।
२. संचयकृत्स्न-१८० मास का। इससे अधिक संचय नहीं होता।
३. आरोपणाकृत्स्न-छह मास की। भगवान् महावीर के तीर्थ में इससे अधिक आरोपणा नहीं होती।
४. अनुग्रहकृत्स्न-छह मास का प्रायश्चित्त वहन करते हुए के छह दिन बीते हैं। इसके बीच छह मास का और प्रायश्चित्त प्राप्त हो गया । तब पूर्व के पांच मास २४ दिन का प्रायश्चित्त जो शेष रहा, वह समस्त छोड़ दिया जाता है और जो नया छह मास का प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है, उसको वहन करना।
५. अनुद्घातकृत्स्न कालगुरु अर्थात् गुरुमास आदि अथवा निरंतर प्रायश्चित्त दान । (इसके तीन प्रकार हैं-कालगुरु, तपोगुरु, उभयगुरु।)
कालगुरु-ग्रीष्म आदि कर्कश काल में प्रायश्चित्त देना। तपोगुरु-निरंतर तेले-तेले की तपस्या देना।
सा उभयगुरु-ग्रीष्म आदि में निरंतर प्रायश्चित्त देना।
६. निरवशेषकृत्स्न-जो प्रायश्चित्त प्राप्त है उसको पूर्णरूप से, न न्यून और न अधिक, देना। ५७४. एत्तो समारुभेज्जाऽणुग्गह कसिणेण चिण्णसेसम्मि।
आलोयणं सुणेत्ता, पुरिसज्जातं च विण्णाय॥
छह प्रकार के कृत्स्नों में से जिस कृत्स्न के अंतर्गत प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है, उसको वहन करते समय उसकी आलोचना को सुनकर तथा उस पुरुषजात की स्थिति को जानकर जो प्रायश्चित्त आचीर्ण करने के पश्चात् शेष रहा है, उसमें अनुग्रहकृत्स्न का समारोप करना चाहिए । ५७५. पुव्वाणुपुब्वि दुविधा, पडिसेवणाय तधेव आलोए।
पडिसेवण आलोयण, पुव्वं पच्छा य चउभंगो।।
पूर्वानुपुर्वी (अनुपरिपाटी) के दो प्रकार हैं-प्रतिसेवना विषयक तथा आलोचना विषयक। प्रतिसेवना और आलोचना में पूर्व-पश्चात् पदों के आधार पर चार विकल्प होते हैं
१. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित, पूर्वानुपूर्वी से आलोचित। २. पूर्वानुपूर्वी से प्रतिसेवित, पश्चादनुपूर्वी से आलोचित।
सानुवाद व्यवहारभाष्य ३.पश्चाद् अनुपूर्वी से प्रतिसेवित, पूर्वानुपूर्वी से आलोचित।
४. पश्चाद् अनुपूर्वी से प्रतिसेवित, पश्चादनुपूर्वी से आलोचित। ५७६. पुव्वाणुपुब्वि पढमो, विवरीते बितिय ततियए गुरुगो।
आयरियकारणा वा, पच्छा पच्छा व सुण्णो उ॥ पूर्वानुपूर्वी प्रतिसेवना-आलोचना में प्रथम भंग है। दूसरा और तीसरा भंग इससे विपरीत है। इनमें यथाप्राप्त प्रायश्चित्त के साथ-साथ मायानिष्पन्न गुरुमास अधिक दिया जाता है। प्रश्न होता है-पश्चाद् प्रतिसेवित, पूर्व आलोचित-यह तीसरा भंग कैसे संभव होता है ? आचार्य आदि के प्रयोजन से अन्य ग्राम जाने का इच्छुक मुनि आचार्य को निवेदन करता है-अमुक कारण से मैं अमुक काल तक विकृति का सेवन करना चाहता हूंयह पूर्व आलोचना और पश्चात् प्रतिसेवना है। अथवा यह तृतीय भंग शून्य है-पश्चात् अर्थात् प्रतिसवेना से पूर्व आलोचना शून्य ही होती है। ५७७. पच्छित्तऽणुपुव्वीए, जयणा-पडिसेवणाय अणुपुव्वी।
एमेव वियडणाए, बितिय-ततियमादिणो गुरुगो।।
प्रायश्चित्त की अनुपूर्वी से अर्थात् प्रायश्चित्त की अनुपरिपाटी से, जो यतनापूर्वक प्रतिसेवना की वह प्रतिसेवना की अनुपूर्वी तथा जिस प्रकार प्रतिसेवना की है उसी प्रकार आलोचना करना यह है आलोचना की अनुपूर्वी। दूसरे और तीसरे भंग में जो प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, वह नियमतः दिया जाता है। केवल मायावी को एक गुरुमास अधिक दिया जाता है। ५७८. पुव्वं गुरूणि पडिसेविऊण, पच्छा लहणि सेवित्ता।
लहुए पुव्वं कधयति, मा मे दो देज्ज पच्छित्ते॥
प्रतिसेवी पहले गुरु अर्थात् मासलघु आदि की प्रतिसेवना कर फिर लघु अर्थात् लघुपंचक आदि की प्रतिसेवना करता है। वह आलोचना के समय पहले लघु की आलोचना करता है फिर गुरु की। वह यह सोचता है-यदि मैं पहले गुरु प्रतिसेवना की बात कहूंगा तो आचार्य मुझे दो प्रायश्चित्त-अयतनानिष्पन्न तथा प्रतिसेवनानिष्पन्न-देंगे। इसलिए वह पहले लघु प्रतिसेवना का कथन करता है। ५७९. अधवाऽजतपडिसेवि, त्ति नेव दाहिंति मज्झ पच्छित्तं।
इति दो मज्झिमभंगा, चरिमो पुण पढमसरिसो उ॥
अथवा आचार्य यतना से प्रतिसेवना करने वाला जानकर मुझे प्रायश्चित्त नहीं देंगे (या स्वल्प प्रायश्चित्त देंगे।) ये दो मध्यम भंग (दूसरा और तीसरा) मायावी के होते हैं। चरम भंग (चौथा विकल्प) प्रथम सदृश होता है। (जैसी प्रतिसेवना वैसी आलोचना, माया नहीं होती।)
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