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पहला उद्देशक
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परिकुंचना-माया से संबंधित दृष्टांत'
३२७. चोदग मा गद्दभत्ति, कोट्ठारतिगं दुवे य खल्लाडा । द्वैमासिक परिहारस्थान प्राप्त प्रतिकुंचक का दृष्टांत
अद्भाणे सेवितम्मि, सव्वेसिं घेत्तु णं दिण्णं ।। कुंचिक तापस।
पहले प्रमाण के रूप में सूत्र का उपन्यास करें। फिर त्रैमासिक परिहारस्थान प्राप्त प्रतिकुंचक का दृष्टांत-योद्धा। प्रश्नकर्ता शिष्य के वचन का निरसन कर उसे कहे-मा--ऐसे मत
चतुर्मासिक परिहारस्थान प्राप्त प्रतिकुंचक का दृष्टांत- बोलो। फिर मार्ग में अनेक बार मासिक परिहारस्थान के सेवन के मालाकार।
सभी दिनों को मिलाकर एक मासिक प्रायश्चित्त के विषय में पंचमासिक परिहारस्थान प्राप्त प्रतिकुंचक का दृष्टांत-मेघ गर्दभ का दृष्टांत कहे। फिर कोष्ठागारत्रिक का और दो खल्वाटों
आलोचक जब मायापूर्वक आलोचना करता है तब का दृष्टांत बताए। (इस गाथा का स्पष्टार्थ अगली गाथाओं में।) आचार्य उसे तीन बार आलोचना दुहराने के लिए प्रेरित करते हैं। ३२८. अवि य हु सुत्ते भणियं, सुत्तं विसमं ति मा भणसु एवं । (शिष्य ने पूछा-भंते! छहमास पर्यंत परिहारस्थान कैसे प्राप्त संभवति न सो हेऊ अत्ता जेणालियं बूया ।। होता है?) आचार्य कहते हैं-तीन स्थानों से अर्थात् उद्गम, (आचार्य कहते हैं-गीतार्थ और अगीतार्थ के आधार पर उत्पादन और एषणा संबंधी प्रतिसेवना से ये प्राप्त होते हैं। हम उचित प्रायश्चित्त देते हैं।) बहु अर्थात् निश्चितरूप से विषम
एक मासिक परिहारस्थान से पंचमासिक परिहारस्थान । प्रतिसेवनाओं में भी तुल्य प्रायश्चित्त का विधान सूत्र में है पर्यंत पांच सूत्र-प्रकारों को जानना चाहिए। 'बहूहीं इसलिए कोई दोष नहीं है। आचार्य ने कहा-शिष्य ! सूत्र विषम उक्खड्डमड्डाहिं' का अर्थ है-बहुशः, बहुत बार, पुनः पुनः। हैं, ऐसा मत कहो। (क्योंकि सूत्र के अर्थ के कर्ता वीतराग होते ३२५. बहुएसु एगदाणे, रागो एक्केक्कदाण दोसो उ। हैं-अत्थं भासई अरहा।) इसलिए उन में विषमता का वह हेतु
एवमगीते चोदग, गीतम्मि य अजयसेविम्मि ।। (राग-द्वेष) नहीं होता जिसके कारण वे आप्त-वीतराग पुरुष.
शिष्य ने कहा-भंते! आपकी प्रायश्चित्त दानविधि राग- अलीक बात कहें। द्वेष से मुक्त नहीं है। मासिक आदि परिहारस्थानों का बहुत बार ३२९. कामं विसमा वत्थू, तुल्ला सोही तथा वि खलु तेसिं । प्रतिसेवना करने पर भी एक मासिक का ही प्रायश्चित्त आता है। पंचवणि तिपंचखरा, अतुल्लमुल्ला य आहरणा ।। इसी प्रकार द्वैमासिक यावत् पंचमासिक परिहारस्थानों का बहुत हम मानते हैं कि विषम प्रतिसेवनाओं में भी निश्चितरूप से बार प्रतिसेवना करने पर भी एक-एक द्वैमासिक यावत् एक-एक तुल्य प्रायश्चित्त से शोधि होती है। पांच वणिकों के पास विषम पंचमासिक प्रायश्चित्त ही आता है। क्या यह राग नहीं है ? और मूल्यवाले पंद्रह गधे थे। यह दृष्टांत है। जिन्होंने एक-एक बार ही एक मासिकी यावत् पंचमासिकी ३३०. विणिउत्तभंडभंडण, मा भंडह तत्थ एगु सट्ठीए । प्रतिसेवना की है, उनको भी एक-एक मासिक यावत् पंचमासिक
दो तीस तिन्नि वीसग, चउ पन्नर पंच बारसगे ।। प्रायश्चित्त आता है। क्या यह द्वेष नहीं है?
पांच बनियों ने साथ में व्यापार किया और लाभ का आचार्य ने कहा-वत्स! प्रायश्चित्त का यह विधान समांश वितरण की बात निश्चित हुई। उन्हें व्यापार में विषम अगीतार्थ और गीतार्थ प्रतिसेवक की अपेक्षा से है। गीतार्थ मूल्य वाले १५ गधे लाभ रूप में प्राप्त हुए। अब समान वितरण अयतना से प्रतिसेवना करता है तब वह इस प्रायश्चित्त का भागी के समय पांचों में कलह होने लगा। समान वितरण में एक-एक होता है।
को तीन-तीन गधे मिलते, परंतु उनका मूल्य विषम था, अतः ३२६. जो जत्तिएण रोगो, पसमति तं देति भेसजं वेज्जो। किसी को भी यह मान्य नहीं हुआ। एक समझदार मध्यस्थ
एवागम-सुतनाणी, सुज्झति जेणं तयं देति ।। व्यक्ति ने कहा-कलह मत करो। मैं समान वितरण कर दूंगा।
जो रोग जितनी औषधि से शांत होता है, वैद्य रोगी को। उसने एक बनिये को साठ रुपये के मूल्य वाला एक गधा दे दिया, उतनी मात्रा में भैषज्य देता है। उसी प्रकार आगमज्ञानी और दूसरे को तीस-तीस रुपयों के मूल्य वाले दो गधे, तीसरे को श्रुतज्ञानी आचार्य गीतार्थ अथवा अगीतार्थ प्रतिसेवक को उतना बीस-बीस रुपयों के मूल्य वाले तीन गधे, चौथे को पंद्रह-पंद्रह प्रायश्चित्त देते हैं, जितने से उसकी विशोधि होती है।
रुपयों के मूल्य वाले चार गधे और पांचवे को बारह-बारह रुपयों
के मूल्य वाले पांच गधे दे दिये। १. देखें-व्यवहारभाष्य कथानक परिशिष्ट।।
है, तथा उन्हीं सूत्रों में गीतार्थ जितनी बार प्रतिसेवना करता है उसे २. एक मासिकादि पांचों प्रकार के सूत्रों में अगीतार्थ जितनी मात्रा में मासिकादि स्थानों में तत् स्थानांक एक मासिक का ही प्रायश्चित्त प्रतिसेवना करता है, उसी मात्रा में उसे पूरा प्रायश्चित्त दिया जाता
. आता है।
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