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पहला उद्देशक होता है। साधु को दंड न देना दुःख का कारण है और गृहस्थ को ३४७. एत्थ पडिसेवणाओ, दंड न देना सुख का कारण है।
एक्कग-दुग-तिग-चउक्क-पणगेहिं । ३४२. उद्धितदंडो साहू, अचिरेण उवेति सासयं ठाणं । दस दस पंचग एक्कग, सोच्चियऽणुद्धियदंडो, संसारपवट्टओ होति ।।
अदुव अणेगाउ एयाओ.।। ३४३. उद्धियदंडगिहत्थो, असण-वसणविरहितो दुही होति । (८४३२ सूत्र संख्या हुई। वह निम्नोक्त भंगों-विकल्पों के
सोच्चियऽणुद्धियदंडो, असण-वसणभोगवं होति ।। आधार पर हुई हैं। वह भंग-परिज्ञान प्रस्तुत श्लोक में है।) इस
जो साधु दंड ग्रहण कर (विशोधि कर) लेता है वह शीघ्र ही सूत्र समूह में प्रतिसेवना के इतने ही प्रकार हैं। पांचों पदों के एक, शाश्वत स्थान अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। वह यदि दंड द्विक, त्रिक, चतुष्क तथा पंचक के साथ एक, दो, तीन, चार, ग्रहण नहीं करता (विशोधि नहीं करता) तो वह संसार-प्रवर्तक । पांच के संयोग से ये भंग विकल्प होते हैं। होता है।
३४८. जध मन्ने बहुसो मासियाणि सेवित्तु वढती उवरिं। इसी प्रकार जो गृहस्थ दंड ग्रहण करता है वह अशन, वस्त्र
तह हेट्ठा परिहायति, दुविहं तिविधं च आमं ति ।। रहित होकर दुःखी होता है और जो गृहस्थ दंड ग्रहण नहीं करता मैं चिंतन करता हूं कि जिस प्रकार अनेक मासों की वह अशन, वस्त्र आदि का परिभोग करता है।
प्रतिसेवना कर कदाचित् एक मासिक प्रायश्चित्त ही आता है। ३४४. कसिणारुवणा पढमे,
कदाचित् वह प्रायश्चित्त बढ़ता जाता है, जैसे-तीव्र अध्यवसाय बितिए बहुसो वि सेवितो सरिसा ।। से द्वैमासिकी प्रतिसेवना करने वाले को त्रैमासिक यावत् संजोगो पुण ततिए,
षाण्मासिक का प्रायश्चित्त आ सकता है और दुष्ट अध्यवसाय से तत्थंतिमसुत्त वल्ली वा ।।। की गई प्रतिसेवना में छेद, मूल, पारांचित भी आ सकता है। इसी प्रथम सूत्र में कृत्स्ना आरोपणा कही गयी है। इसका प्रकार प्रायश्चित्त का ह्रास भी होता है, जैसे-मासिक प्रतिसेवना तात्पर्य है कि जितनी प्रतिसेवना की है, उसका पूरा प्रायश्चित्त करने पर भी भिन्न मास का प्रायश्चित्त, कदाचित् पच्चीस दिनदिया गया है, कुछ भी छोड़ा नहीं है। द्वितीय सूत्र में बहुत मासिक रात यावत् पांच दिन-रात का प्रायश्चित्त भी आता है। आचार्य परिहारस्थान की प्रतिसेवना में कुछ छोड़कर प्रथम सूत्र की भांति कहते हैं-यह सम्मत है। प्रायश्चित्त दिया गया है। तीसरे सूत्र में पंचपदगत संयोग ३४९. केण पुण कारणेणं, जिणपण्णत्ताणि काणि पुण ताणि । उपदर्शित है। वल्ली की भांति अंतिम संयोग सूत्र से द्विक आदि जिण जाणंति उ ताई, चोयग पुच्छा बहुं नाउं ।। संयोग स्वतः गृहीत हो जाते हैं।
शिष्य ने पूछा-किन कारणों से प्रायश्चित्त की वृद्धि हानि ३४५. जे भिक्खु बहुसो मासियाणि सुत्तं विभासियव्वं तु। होती है? आचार्य कहते हैं-इसमें जिनप्रज्ञप्त कारण ही मुख्य हैं।
दोमासिय तेमासिय, कयाइ एगुत्तरा वुड्डी ।। शिष्य ने पुनः पूछा-वे कारण कौन-कौन से हैं ? (यदि प्रतिसेवना
जिस भिक्षु ने बहुशः मासिक अर्थात् द्वैमासिक, त्रैमासिक में राग, द्वेष, हर्ष आदि की वृद्धि-हानि के कारण प्रायश्चित्त में (चातुर्मासिक, पंच मासिक) आदि प्रतिसेवनाएं अनेक बार की वृद्धि-हानि होती है तो इसको केवली आदि ही जान सकते हैं। है, इसकी सूत्र से व्याख्या जान लेनी चाहिए। द्विक आदि संयोग दूसरे कैसे जान पाते हैं ?) आचार्य कहते हैं-दूसरे भी उनके द्वारा में एकोत्तरावृद्धि करनी चाहिए।
उपदिष्ट श्रुतज्ञान के आधार पर जान लेते हैं अथवा तीन बार ३४६. उग्घातमणुग्घाते, मूलुत्तरदप्पकप्पतो चेव । आलोचना करवाकर यथार्थ को जान जाते हैं। शिष्य ने
संजोगा कायव्वा, पत्तेगं मीसगा चेव ।। पूछा-अनेक सूत्रों में 'बहु' शब्द का प्रयोग है। उसका क्या अर्थ
उद्घात, अनुद्घात, मूलगुण, उत्तरगुण, दर्प, कल्प-इनके है? (पूर्वोक्त की भांति) संयोग करने चाहिए। पुनः उद्घात आदि पदों ३५०. तिविहं च होति बहुगं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं । के मिश्रक-जैसे-उद्घात-अनुद्घात-संयोगनिष्पन्न आदि।
जहन्नेण तिन्नि बहुगा, उक्कोसो पंचचुलसीता ।। 'बहुक' शब्द के तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और
१. जैसे वल्ली का अग्रभाग खींचने पर समूची वल्ली खींच ली जाती है,
वैसे ही..... २. द्विकसंयोग के १० भंग, त्रिकसंयोग के १० भंग, चतुष्कसंयोग के ५
भंग, पंचकसंयोग का एक भंग। ३. विकल्पों के लिए देखें वृत्ति पत्र ५५,५६।
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