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पहला उद्देशक २४०. मूलगुण पढमकाया, तत्थ वि पढमं तु पंथमादीसु। २४४. संतम्मि वि बलविरिए, तवोवहाणम्मि जं न उज्जमियं ।
पाद अपमज्जणादी, बितिए उल्लादि पंथे वा।। एस विहारवियडणा, वोच्छं उवसंप नाणत्तं ।।
आलोचना की विधि-सबसे पहले मूलगुणों के अपराध बल और वीर्य-शारीरिक शक्ति और आंतरिक शक्ति होने की आलोचना करे। मूलगुणों में भी सबसे पहले षट्जीवनिकाय पर भी यदि तप उपधान में उद्यम न किया हो तो उसकी भी संबंधी, उसमें भी पहले पृथ्वीकाय से संबंधित आलोचना करे।। आलोचना करे। यह विहारालोचना है। उपसंपदालोचना का भी मार्ग आदि में पादप्रमार्जन न किया हो, उसकी आलोचना करे।'
यही स्वरूप है। उसका जो नानात्व है (उपसंपदालोचना तथा फिर अप्काय विषयक आलोचना करे। उदकार्द्र हाथ या पात्र से
अपराधालोचना का विहारालोचना से जो नानात्व है) वह मैं भिक्षा ग्रहण की हो अथवा मार्ग में अयतनापूर्वक उदक को पार
कहूंगा। किया हो आदि की आलोचना करे।
२४५. एगमणेगा दिवसेसु, होति ओघे य पदविभागे य। २४१. ततिए पतिट्ठियादी, अभिधारणवीयणादि वाउम्मि ।
उपसंपयावराहे, नायमनायं परिच्छंति ।। बीयादिघट्ट पंचम, इंदिय अणुवायतो छढे।।
उपसंपदालोचना और अपराधालोचना के दो-दो प्रकार तीसरे में प्रतिष्ठितादि अर्थात् अग्नि पर परंपराधिष्ठित भक्त
हैं--- ओघ और पदविभाग। ओघालोचना एक दैवसिकी और पान लिया हो, उसकी आलोचना करे तदनंतर वायुकाय से
विभागालोचना एक दैवसिकी तथा अनेक दैवसिकी होती है। संबंधित अभिधारण और बीजनादि की आलोचना करे अर्थात् गर्मी से आर्त्त होकर बाहर वायु का अभिसंधारण किया हो तथा
उपसंपद्यमान पूर्व ज्ञात है अथवा अज्ञात-इसकी परीक्षा की जाती भक्त, पान अथवा शरीर पर पंखे से हवा की हो तो उसकी
है। (यदि वह ज्ञात है तो परीक्षा नहीं की जाती। यदि अज्ञात हो आलोचना करे। तदनंतर बीज आदि के घट्टन से वनस्पति की
तो आवश्यक आदि पदों से परीक्षा की जाती है।) आलोचना करे। फिर छठी काय-त्रसकाय से संबंधित अपराध
२४६. दिव-रातो उवसंपय, अवराधे दिवसतो पसत्थमि । की इंद्रियवृद्धि के क्रम से आलोचना करे।
उव्वातो तद्दिवसं, तिण्हं तु अतिक्कमे गुरुगा ।। २४२. दुब्भासिय हसितादी, बितिए ततिए अजाइउग्गहणं । उपसंपदालोचना प्रशस्त अथवा अप्रशस्त दिन या रात में
घट्टणपुव्वरतादी, इंदिय-आलोय मेहण्णे।। दी जा सकती है। (इसमें दोष का अभाव है तथा यह पूर्वाचार्यों
दूसरे मूलगुण (मृषावाद) के अपराध में दुर्भाषित अथवा द्वारा अनुज्ञात है।) अपराध विषयक आलोचना प्रशस्त दिन में हास्य से मृषावाद कहा हो तो उसकी आलोचना करे। तदनन्तर ही दी जा सकती है। उपसंपद्यमान शिष्य जिस दिन आया है और तीसरे मूलगुण (अदत्तादान) से संबंधित अयाचितग्रहण करने यदि वह परिश्रांत है, यह सोचकर आचार्य ने उसे कुछ भी नहीं पर तथा चौथे मूलगुण (मैथुन) से संबंधित शरीर संघट्टन, पूर्व पछा तो आचार्य शद्ध हैं। तीन दिनों का अतिक्रम कर (चौथे दिन) क्रीडित का अनुस्मरण, स्त्रियों के इंद्रिय आदि का अवलोकन से पूछने पर आचार्य को गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। होने वाले अपराध की आलोचना करे।
२४७. समणुण्णदुगनिमित्तं, उवसंपज्जंत होति एमेव । २४३. मुच्छातिरित्त पंचम, छटे लेवाड अगद-सुंठादी।
अन्नमणुण्णे नवरिं, विभागतो कारणे भइयं ।। गुत्ति-समिती विवक्खा, अणेसिगणुत्तरगुणेसु ।।
उपसंपद्यमान के दो प्रकार हैं-समनोज्ञ और असमनोज्ञ। पांचवे मूलगुण विषयक अर्थात् उपकरण विषयक मूर्छा
समनोज्ञ समनोज्ञ के पास दो कारणों से उपसंपदा ग्रहण करता तथा अतिरिक्त उपधि का ग्रहण-उपभोग होने पर उसकी
है-ज्ञान के लिए तथा दर्शन के लिए। उसके विहारालोचना की आलोचना करे। छठे मूलगुण (रात्रीभोजन) के अपराध में
भांति उपसंपदालोचना होती है। भिन्नसांभोगिक अर्थात् अमनोज्ञ लेपकृत पात्र रात्री में रखा हो, औषधि शंठी आदि का परिभोग
ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीन निमित्तों से उपसंपदा ग्रहण किया हो उसकी आलोचना करे। इस प्रकार मूलगुणों के अपराध की क्रमशः आलोचना कर तदनंतर उत्तरगुणविषयक गुप्ति,
करता है। उसे ओघतः अथवा विभागतः आलोचना आती है। समिति के विपक्ष आचरण किया हो अर्थात् अनेषणीय का ग्रहण
कारण में विभागालोचना की भजना है, विकल्प है। किया हो, अगुप्त अथवा असमित रहा हो, उसकी आलोचना
२४८. पढमदिणमविप्फाले, लहुओ बितिए गुरु तइए लहुया। करें।
तेच्चिय तस्स अकधणे, सुद्धमसुद्धो विमेहिं तु ।।
कोई उपसंपदा ग्रहण करने के लिए आया है। यदि गुरु १. मार्ग में चलते हुए स्थंडिल से अस्थंडिल में या अस्थंडिल से स्थंडिल करना अथवा वायु के द्वारा आनीत सचित्त रज, सचित्त मृत्तिका से
में, काली मिट्टी से अन्य वर्ण वाली मिट्टी में अथवा अन्य वर्ण वाली संसृष्ट हाथ या पात्र में भिक्षा ग्रहण करना।
मिट्टी से काली आदि मिट्टी में पैरों का बिना प्रमार्जन किये गमन २. यह गाथा में प्रयुक्त 'नवरिं' (नवरं) का विशेष अर्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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