________________
पीठिका
शब्द (अभिधान) में अभिन्नता होने पर भी अर्थ १. स्थिर-धृति और संहनन से संपन्न । (अभिधेय) में नानात्व दिखायी देता है। शब्दभेद होने पर भी २. अस्थिर-धृति और संहनन से हीन। अर्थभेद नहीं होता।
जो गीतार्थ (तथा कृतकरण और स्थिर) मुनि जिस १५६. पढमो त्ति इंद-इंदो, बितीयओ होइ इंद-सक्को त्ति। प्रायश्चित्त स्थान का सेवन करता है उसको तदनुसार पूरा
ततिओ गो-भूप-पसू, रस्सी चरमो घड-पडो त्ति॥ प्रायश्चित्त दिया जाता है। जो अगीतार्थ (उपलक्षण से अस्थिर शब्द और अर्थ में भेदाभेद विषयक चार विकल्प हैं- तथा अकृतकरण) मुनि जिस प्रायश्चित्तस्थान का सेवन करता १. शब्द अभेद अर्थ अभेद-जैसे-इंद्र, इंद्र।
है, उसे आचार्य अपनी इच्छानुसार (श्रुतोपदेश के अनुसार) २. शब्द भेद अर्थ अभेद-जैसे-इंद्र, शक्र।
प्रायश्चित्त देते हैं। (परीक्षा करने पर वह यदि असमर्थ प्रतीत ३. शब्द अभेद अर्थ भेद-जैसे-गो शब्द के भूप, पशु, होता है तो उसे न्यून, न्यूनतर और न्यूनतम प्रायश्चित्तरश्मि आदि अनेक अर्थ होते हैं।
नवकारसी देते हैं। यदि यह भी वह न कर सके तो आलोचना४. शब्द भेद अर्थ भेद-जैसे घट, पट आदि।
मात्र से उसकी शुद्धि का आपादन कर देते हैं।) १५७. वंजणेण य नाणत्तं, अत्थतो य विकप्पियं। १६१. अहवा सावेक्खितरे निरवेक्खा सव्वसो उ कयकरणा।
दिस्सते कप्पणामस्स, ववहारस्स तधेव य॥ इतरे कयाऽकया वा, थिराऽथिरा. होति गीतत्था।
कल्प और व्यवहार में व्यंजन (शब्द) का नानात्व दिखायी अथवा प्रायश्चित्तार्ह पुरुषों के दो प्रकार हैं-सापेक्ष और देता है। अर्थ में विकल्पित-नानात्व है। प्रायश्चित्त के दो भेद निरपेक्ष। निरपेक्ष सर्वथा कृतकरण, गीतार्थ और स्थिर होते हैं। हैं-प्रतिसेवना और संयोजना। इनका तथा प्रायश्चित्ताह पुरुषों सापेक्ष दोनों प्रकार के होते है-कृतकरण और अकृतकरण, स्थिर का उल्लेख कल्पाध्ययन में नहीं हैं। यह व्यवहार में विशेष है।
और अस्थिर, गीतार्थ और अगीतार्थ। १५८. वढ्तस्स अकप्पे, पच्छित्तं तस्स वणिया भेदा। १६२. छट्ठऽट्ठमादिएहिं कयकरणा ते उ उभयपरियाए। जे पुण पुरिसज्जाया, तस्सरिहा ते इमे होति।
अभिगतकयकरणतं, जोगायतगारिहा केई।। जो मुनि अकल्प में वर्तमान है उसको जो प्रायश्चित्त प्राप्त
कृतकरण वे होते हैं जो गीतार्थ और अगीतार्थ-इन दोनों होता है, उसके भेद व्यवहार में वर्णित हैं। पुनः जो उस प्रायश्चित्त
अवस्थाओं में बेले, तेले आदि विशेष तपस्या से अपने आपको के योग्य पुरुष के प्रकार हैं, वे ये होते हैं
परिकर्मित कर लेते हैं। (दीर्घकालिक तप की अर्हता प्राप्त कर १५९. कतकरणा इतरे वा, सावेक्खा खलु तहेव निरवेक्खा । निरवेक्खा जिणमादी, सावेक्खा आयरियमादी।
कुछ आचार्यों का अभिमत है कि जो अधिगत (गीतार्थ) प्रायश्चित्ताह के दो भेद हैं
होते हैं वे नियमतः कृतकरण होते हैं। क्योंकि महाकल्पश्रुत आदि १. कृतकरण-बेले, तेले आदि विविध तप से अपने शरीर
के अध्ययनकाल में वे दीर्घकाल तक योगवहन करते हैंको परिकर्मित-भावित करने वाले।
आयतकयोगार्ह हो जाते हैं। २. अकृतकरण-बेले, तेले आदि विशेष तप से अपरि
१६३. निव्वितिए पुरिमड्ढे, एक्कासण अंबिले चउत्थे य। कर्मित शरीर वाले।
पणगं दस पण्णरसा, वीसा तह पण्णवीसा य॥ कृतकरण के दो प्रकार हैं
१६४. मासो लहुओ गुरुगो, चउरो मासा हवंति लहु-गुरुगा। १.सापेक्ष-गच्छवासी।
छम्मासा लहु-गुरुगा, छेदो मूलं तध दुगं च॥ २. निरपेक्ष संघमुक्त जैसे जिनकल्पिक, शुद्ध परिहार
(सापेक्ष को प्रायश्चित देते समय सापेक्षता से गुरु-लघु विशुद्धिक और यथालंदकल्पिक। आचार्य, उपाध्याय और
का चिंतन किया जाता है। उनको जो प्रायश्चित्त दिया जाता है भिक्षु-ये कृतकरण और अकृतकरण-दोनों होते हैं।
वह इस प्रकार है-) १६०. अकतकरणा वि दुविहा, अणभिगता य बोधव्वा ।
निर्विकृति (विगयवर्जन), पुरीमड्ड (दो प्रहर), एकाशन, जं सेवेति अभिगते, अणभिगते अत्थिरे इच्छा।
आचाम्ल, उपवास, लघु-गुरु अहोरात्रपंचक, लघु-गुरु अहोरात्र अकृतकरण मुनि के दो प्रकार हैं
दशक, लघु-गुरु अहोरात्र पंचदशक, लघु-गुरु बीस अहोरात्र, १. अनधिगत-अगीतार्थ।
लघु-गुरु पच्चीस अहोरात्र, लघु-गुरु मास, लघु-गुरु चार२. अधिगत-गीतार्थ।
मास, लघु-गुरु छह मास, छेद और मूल। अनवस्थाप्य और इनके दो-दो भेद हैंJain Education International For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
लेते हैं।)