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सानुवाद व्यवहारभाष्य १९२. दगमुद्देसियं चेव, कंद-मूल-फलाणि य। १९६. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य।
सयंगाहा परत्तो य, गिण्हता किह भिक्खुणो ।। मासस्स परूवणया, पगतं पुण कालमासेणं ।।
वे अन्यलिंगी साधु सचित्त पानी, औद्देशिक भक्त-पान, मास शब्द के छह निक्षेप हैं-नाममास, स्थापनामास, सचित्त कंद, मूल, फल आदि स्वयं ग्रहण करते हैं और दूसरों से द्रव्यमास, क्षेत्रमास, कालमास और भावमास। इनकी मैं प्ररूपणा मंगाकर लेते हैं। वे कैसे भिक्षु हो सकते हैं? (क्योंकि यहां करूंगा। प्रस्तुत में कालमास का प्रसंग है। भिक्षावृत्ति का अभाव है।)
१९७. दव्वे भविओ निव्वत्तिओ,य खेत्तम्मि जम्मि वण्णणया। १९३. अचित्ता एसणिच्चा य, मिता काले परिक्खिता। काले जहि वणिज्जति, नक्खत्तादी च पंचविहो ।।
जहालद्धा विसुद्धा य, एसा वित्ती य भिक्खुणो ।। द्रव्यमास है एकभविक आदि मास। द्रव्यमास के दो प्रकार
जो अचित्त, एषणीय, परिमित (कवल आदि के प्रमाण से) हैं-मूलगुण निवर्तना निवर्तित तथा उत्तरगुण निवर्तना निवर्तित।' अथवा मियकाल-परिमित काल अर्थात् दिन के तृतीय प्रहर में, जिस क्षेत्र में मास का वर्णन किया जाता है वह क्षेत्रमास है। जिस परीक्षित-दायक आदि के दोष से रहित, यथालब्ध-संयोजनादि काल में मास का वर्णन किया जाता है वह कालमास है। अथवा दोषरहित आहार के उपभोगकाल में विशुद्ध अर्थात् राग-द्वेष न श्रावण, भाद्रपद आदि मास है। अथवा नाक्षत्रमास आदि पांच करते हुए अंगारादि दोषों से मुक्त होकर भोजन करना-यह भिक्षु प्रकार का है। की वृत्ति है।
१९८. नक्खत्ते चंदे या, उडु आदिच्चे य होति बोधव्वा । १९४. दव्वे य भाव भेयग, भेदण भेत्तव्वगं च तिविहं तु । अभिवविते य तत्तो, पंचविधो कालमासो उ ।।
नाणादि भाव-भेयण, कम्मखुधेगट्ठयं भेज्जं ।। कालमास के पांच प्रकार हैं-नाक्षत्रमास, चांद्रमास,
भेदक, भेदन और भेतव्य-इन तीनों के दो-दो प्रकार ऋतुमास, आदित्यमास और अभिवर्धितमास। (ऋतुमास, हैं-द्रव्यतः और भावतः। (द्रव्यतः जैसे-रथकार है भेदक, परशु कर्ममास तथा श्रावणमास-ये एकार्थक हैं।) २ । आदि है भेदन और काष्ठ आदि द्रव्य हैं भेतव्य।) भावतः जैसे- १९९. रिक्खादी मासाणं, आणयणोवायकरणमिणमं तु । भेदक है भिक्षु, ज्ञान आदि हैं भेदन (साधन) तथा कर्म है भेतव्य। जुगदिणरासी ठाविय, अट्ठारसयाइँ तीसाई ।। कर्म और क्षुध-ये एकार्थक हैं।
२००. ताधे हराहि भागं, रिक्खादीयाण दिणकरंताणं । १९५. भिंदंतो यावि खुधं, भिक्खू जयमाणगो जती होति। सत्तट्ठी बावट्ठी, एगट्ठी सट्ठिभागेहिं ।।
तव-संजमे तवस्सी , भवं खवंतो भवंतो उ।। इन नाक्षत्रमास आदि के दिनों का आनयन-प्राप्ति के उपाय
जो आठ प्रकार के क्षुध (कर्म) का भेदन करता है वह है का गणित इस प्रकार है-एक युग के अहोरात्र की राशि १८३० भिक्षु। जो संयम योगों में प्रयत्नवान् रहता है वह है यति। जो होती है। उसको संस्थापित कर नक्षत्रमास से आदित्य मास तपःप्रधान संयम में प्रवर्तमान होता है वह है तपस्वी और जो पर्यंत (नक्षत्रमास, चंद्रमास, ऋतुमास तथा आदित्य मास) के भवों (जन्म-मरणों) का अंत करता है वह है भवांत। (ये सारे दिनों को जानने के लिए क्रमशः ६७,६२,६१ और ६० से उस भिक्षु के एकार्थक हैं।)
राशि में भाग देना चाहिए। १. जिस जीव ने पहली बार माषभवानुगतनामगोत्रकर्मोदय से माषद्रव्य कर्ममास अथवा श्रावणमास भी कहा जाता है।
प्रायोग्य द्रव्य को ग्रहण करता है यह मूलगुणनिवर्तित माष है। ४. आदित्य के दो अयन हैं-उत्तरायन और दक्षिणायन। प्रत्येक उत्तरगुणनिवर्तित चित्रलिखित माषस्तंब।
अयन १८३ दिन का होता है। उसका छठा भाग (३०) एक २. 'एस चेव उउमासो कम्ममासो इति वा सावनमास इति वा।'
आदित्य मास कहलाता है। १. नाक्षत्रमास-चंद्र अपनी चारिका करता हुआ अभिजित नक्षत्र से ५. अभिवर्धित मास-चार आदित्यमास के पश्चात् पांचवा मास उत्तराषाढा नक्षत्र पर्यंत जितने काल में जाता है वह कालप्रमाण अभिवर्धित मास कहलाता है। प्रत्येक संवत्सर में बारह चंद्रमास नाक्षत्रमास है। अथवा चंद्र नक्षत्रमंडल की परिक्रमा जितने समय में होते हैं। उससे एक मास की वृद्धि के कारण अभिवर्धित मास कहलाता संपन्न करता है वह नाक्षत्रमास है।
(वृत्ति पत्र ७) २. चांद्रमास युग के आदि में श्रावण मास की कृष्णपक्ष की प्रतिपदा
३. सूर्य का उत्तरायन तथा दक्षिणायन १८३-१८३ दिन का होता है। से प्रारंभ कर पौर्णमासी की परिसमाप्ति तक का कालप्रमाण चांद्र
ऐसे पांच उत्तरायन और पांच दक्षिणायन का एक युग होता है । अतः मास है अथवा चंद्रमा की चारिका की परिसमाप्ति के कारण मास भी
दिनों की कुल संख्या (१८३४१०) १८३० होगी। चांद्रमास कहलाता है।
३. ऋतुमास-लोकरूढ़ी के अनुसार तीस अहोरात्र कालप्रमाण। इसे Jain Education International For Private & Personal Use Only
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