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सानुवाद व्यवहारभाष्य
विषण्ण काठवाली नौका का परिशीलन नहीं किया जा सकता। १८२. संदेहियमारोग्गं, पउणो वि न पच्चलो तु जोगाणं।
इति सेवंतो दप्ये, वट्टति न य सो तथा गीतो।। जिस ग्लान भिक्षु को आरोग्य में संदेह हो, स्वस्थ हो जाने पर भी संयम साधना में अपनी असमर्थता ज्ञात हो, यदि यह जानते हुए भी वह अकल्प्य की प्रतिसेवना करता है तो वह दर्पिका प्रतिसेवना है। गीतार्थ मुनि को ऐसी प्रतिसेवना नहीं करनी चाहिए। १८३. काहं अछित्तिं अदुवा अधीतं,
तवोवधाणेसु य उज्जमिस्सं। गणं व नीइए य सारविस्सं,
सालंबसेवी समुवेति मोक्खं ।। जो ग्लान भिक्षु यह जानता है कि मैं स्वस्थ होकर, अनेक व्यक्तियों को प्रवृजित कर तीर्थ को अविच्छिन्न करूंगा अथवा द्वादशांग का सूत्र और अर्थ से अध्ययन करूंगा, तथा तपोविधानों में उद्यम करूंगा। मैं नीतिपूर्वक शास्त्रोक्त नीति के अनुसार गण की सारणा करूंगा। जो इन आलंबनों को आधार बनाकर चिकित्सा के लिए अकल्प्य की प्रतिसेवना करता है तो वह सालंबसेवी मुनि मोक्ष को प्राप्त होता है---
'सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं'।
पीठिका समास
१. गंत्री और नौका के दृष्टांत का निगमन
परिपालन के लिए चिकित्सा करवाना उचित है। अन्यथा चिकित्सा यदि ग्लान भिक्षु के दीर्घ आयुष्य की संभावना हो और स्वस्थ करवाना उचित नहीं है।
होने पर संयम-साधना करने की प्रतीति हो तो चिरकाल तक संयम Jain Education International For Private & Personal Use Only
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