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मुक्ति : समाज के धरातल पर
दर्शन के विषय में हमारी कुछ धारणाएं हैं और हम मानते हैं कि वह विषय केवल कुछ लोगों के काम का है, जन-साधारण के काम का नहीं। सच तो यह है कि दर्शन के बिना हमारे जीवन का कोई भी काम नहीं चल सकता | चलने से पूर्व देखा जाता है, फिर चलते हैं । बड़े शहरों में तो इतनी कठिनाई है कि देखे बिना चला जाए तो दुर्घटना घटित हो सकती है। इसलिए पहले दर्शन और फिर चलना होता है । तर्कशास्त्र और दर्शन
__हमने तर्कशास्त्र और दर्शन को एक ही मान लिया, किन्तु दोनों एक नहीं हैं । दोनों में बहुत अन्तर है । तर्कशास्त्र परोक्ष की पद्धति है । जो हमारे प्रत्यक्ष नहीं होता, उसे किसी हेतु से जानना तर्क है, किन्तु दर्शन में प्रत्यक्षानुभूति वाले लोग नहीं हैं, क्योंकि दर्शन पढ़ने से नहीं, साधना से प्राप्त होता है । तर्कशास्त्र पढ़ने से प्राप्त हो जाता है । परोक्षानुभूति बुद्धि का विषय है | दर्शन बुद्धि से अतीत है जो चित्त को निर्मल, केन्द्रीभूत एवं पवित्र करने में निहित है । दर्शन हमारे लिए आवश्यक है ।
तर्कशास्त्र में कहा गया है—“प्रत्यक्ष ज्येष्ठं प्रमाणम् ।' जो प्रत्यक्ष है वह सबसे बड़ा प्रमाण है । परोक्ष गौण है । इसलिए सब इन्द्रियों में आंख को ज्यादा महत्त्व देते हैं |
प्रश्न है विचार के स्रोत का
__ भारत की तीन मुख्य दार्शनिक धाराएं रही हैं. वैदिक, जैन और बौद्ध । इनके अतिरिक्त छोटे-छोटे प्रवाह तो अनेक रहे हैं । इन तीन मुख्य धाराओं में अनेक बातें समान दिखाई देती हैं-महाव्रत, योग, साधना, ध्यान, तपस्या, मैत्री, प्रेम सब में आ गया है किन्तु दर्शन के इतिहास को जानने और पढ़ने वाला इन तीनों को एक नहीं मानता । वह जानता है कि कौन विचार कहां जन्मा, कहां पनपा और कहां विकसित हुआ ? एक विचार कहीं पनपता है, कहीं विकसित होता है और प्रभावशाली होने से उसे दूसरे भी स्वीकार कर लेते हैं । सामान्य लोग मानते हैं कि सब विचार ऐसे ही एक रूप में सब धर्मों में चलते रहे हैं।
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