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समस्या को देखना सीखें
विमर्शनीय विषय
प्राचीन चिन्तकों ने धन की तीन अवस्थाएं बतलाईं—भोग, दान और नाश | नाश अंतिम अवस्था है । एक अवधि के बाद वह निश्चित रूप से घटित होता है । वह विमर्श का विषय नहीं है। विमर्शनीय विषय दो हैं— भोग और दान | अर्थ के उपयोग का प्रश्न इन दोनों से जुड़ा हुआ है । व्यक्तिगत भोग के लिए अर्थ का उपयोग एक सीमा तक समाज को मान्य है । उसका अतिरिक्त उपयोग सामाजिक न्याय के विरुद्ध है और हिंसा को बढ़ाने वाला है । चोरी, डकैती, अपराध और आतंक भोग की अति आसक्ति में खोजे जा सकते हैं। समाज का एक व्यक्ति अतिरिक्त सुख, अतिरिक्त सुविधा और अर्थ चाहता है तो दूसरा भी चाहता है और तीसरा भी चाहता है । यह चाह संक्रामक बनकर पूरे समाज को रुग्ण बना देती है। यदि हम समाज को स्वस्थ रखना चाहते हैं तो संपन्न व्यक्ति को भी भोग की एक सीमा अवश्य निश्चित करनी चाहिए । दान की भाषा बदले
___ अर्जित विशाल धनराशि का उपयोग अपने लिए अतिमात्र न हो, इस अवस्था में उसके उपयोग का दूसरा विकल्प है दान । दान का अर्थ बदलना होगा, उसकी भाषा भी बदलनी होगी । भिखारीपन को बढ़ावा देने वाला दान आज समाज-सम्मत नहीं है, कृपा
और अनुग्रह पूर्वक दिया जाने वाला दान भी अहंकार और हीन भावना की मनोवृत्ति को जन्म देता है । वह भी समाज के लिए हितकर नहीं है । दान को आज सामाजिक सहयोग और संविभाग के रूप में परिभाषित करना जरूरी है । पैसे को बचाने के लिए मनुष्य के पास असीम अवधारणाएं हैं और असीम तर्क हैं इसलिए वह सहसा पैसे को छोड़ना नहीं चाहता । अधिकांश लोगों के धन की तीसरी गति होती है।
धन के प्रति हर व्यक्ति और समाज का दृष्टिकोण समीचीन बने, यह वर्तमान की समस्या का समाधान है।
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