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महावीर की वाणी
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को विविध पहलुओं से देख सकें, परख सकें । इसलिए महावीर के द्वारा प्रतिपादित धर्म विश्वधर्म है। जाति के प्रतिबंध से मुक्त
वर्तमान युग के अनेक विचारक और दार्शनिक इस बात के लिए उत्सुक हैं कि दुनिया में एक धर्म होना चाहिए । महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया, उसके लिए कर्नाटक प्रदेश के महान् आचार्य समन्तभद्र ने लिखा- “सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव".भगवन् ! तुम्हारा शासन सर्वोदय है । विश्वधर्म वह हो सकता है, जो सबका उदय कर सके । जिसमें अमुक वर्ग का उदय करने की क्षमता हो यानी जो अमुक के लिए हो, वह सर्वोदय नहीं हो सकता और जो सर्वोदय है । विश्वधर्म वह हो सकता है जा सबका उदय कर सके । जिसमें अमुक वर्ग का उदय करने की क्षमता हो यानी जो अमुक के लिए हो, वह सर्वोदय नहीं हो सकता और जो सर्वोदय नहीं हो सकता, वह विश्वधर्म की योग्यता को भी प्राप्त नहीं कर सकता । विश्वधर्म की योग्यता उसी में आ सकती है, जो किसी एक का नहीं है । यदि महावीर का धर्म केवल जैनों के लिए होता है तो उसमें विश्वधर्म होने की कोई क्षमता नहीं होती । यदि महावीर का धर्म ओसवाल, अग्रवाल, खंडेवाल आदि जातियों के लिए है तो उसमें विश्वधर्म होने की क्षमता नहीं है । महावीर ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया, उस धर्म में जाति का कोई प्रतिबन्ध नहीं है । सबका मार्ग
जम्बूस्वामी ने सुधर्मास्वामी से पूछा- "कयरे मग्गे अक्खाए'–भन्ते ! महावीर ने कौन-सा मार्ग बतलाया है जिससे हम अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं ? यह मैं जानना चाहता हूं । सुधर्मास्वामी महावीर के तत्त्वज्ञान के उस समय के सबसे बड़े प्रवक्ता थे। उन्होंने शान्तभाव से कहा- "जम्बू ! पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसये छः प्रकार के जीव हैं । दुनिया में इनके अतिरिक्त कोई अन्य जीव नहीं ।" कोई भी जीव दुःख नहीं चाहता । किसी को भी दुःख प्रिय नहीं है । हर प्राणी सुख चाहता है । इसलिये किसी भी जीव की हिंसा न की जाए। यह महावीर का मार्ग किसका नहीं है ?
क्या कोई भी व्यक्ति इस बात को अस्वीकार कर सकता है कि प्राणिमात्र के साथ अपनी आत्मानुभूति, तादात्म्य और एकात्मकता की स्थापना किए बिना हम धार्मिक हो सकते हैं ? इस जीवन में तो क्या किसी भी जीवन में नहीं हो सकते । जब तक प्राणि मात्र के साथ हमारी एकात्मकता की अनुभूति नहीं होती, तब तक हमारे जीवन में धर्म का बीज अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित नहीं हो सकता । धार्मिक होने की सबसे पहली शर्त है कि प्राणिमात्र के साथ एकात्मकता की अनुभूति करना और उनके साथ अपना तादाम्य स्थापित करना । यह है महावीर के द्वारा प्रतिपादित मार्ग ।
पुनः प्रश्न खड़ा हुआ और सुधर्मास्वामी से पूछा गया- महावीर ने धर्म का
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