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व्यवस्था-परिवर्तन और हृदय-परिवर्तन
मनुष्य के विकास और संशोधन की प्रक्रिया हजारों वर्षों से चली आ रही है । मनुष्य आदिकाल में जिस रूप में था वैसा ही रहता तो आज वह जंगली मिलता | मनुष्य ने विकास किया है | बाहरी उपकरणों में विकास किया है और आन्तरिक वृत्तियों में भी । कठिनाई बाहर भी है और भीतर भी है।
मनुष्य में कई मौलिक वृत्तिया होती हैं, जैसे-लड़ाकू वृत्ति, अपना स्वार्थ साधने की वृत्ति आदि । वे पहले भी थीं और आज भी हैं । इन वृत्तियों की विद्यमानता में मनुष्य क्रूर और अशिष्ट बनता है । मनोवैज्ञानिक इन वृत्तियों को मूल वृत्ति मानते हैं । प्राचीन आचार्य इन वृत्तियों को राग-द्वेष मानते थे । भाषा का भेद है | भाव की दृष्टि से दोनों एक बिन्दु पर मिल जाते हैं।
मनुष्य इन वृत्तियों से एकदम छुटकारा पा ले ऐसा सम्भव नहीं लगता । यदि इनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न न किया जाए तो वह और अधिक दारुण बन सकता है इसलिए वृत्तियों के परिमार्जन का प्रयत्न अवश्य होना चाहिए । अणुव्रत आन्दोलन उसी श्रृंखला की एक कड़ी है । मनुष्य धर्म का आचरण हज़ारों वर्षों से कर रहा है । उसके प्रति उसका आकर्षण भी है, फिर भी व्यक्ति का जीवन जैसा बनना चाहिए वैसा नहीं बना है । इससे लगता है कि कहीं न कहीं पर कोई कमी है ।
वर्तमान का धर्म
धर्म में जितनी परलोक की प्रेरणा मान रखी है उतनी वर्तमान की नहीं । परलोक को सुधारने की दृष्टि से धर्म को करने वाले बहुत हैं पर वर्तमान को सुधारने की दृष्टि से धर्म को करने वाले कम हैं । इसीलिए धर्म के द्वारा जितना नैतिक विकास होना चाहिए उतना नहीं हुआ ।
जिसके जीवन में धर्म है परन्तु नैतिकता नहीं है तो इसका अर्थ हुआ--- उसके जीवन में धर्म नहीं है । यह कैसे सम्भव हो सकता है कि दीपक हैं, वह जलता भी है, पर प्रकाश नहीं है । जलन-क्रिया और प्रकाश में विरोधाभास नहीं है । प्रकाश और अन्धकार में विरोध है । धर्म और क्रूरता एक साथ नहीं रह सकते । उस धर्म के साथ क्रूरता टिक सकती है | जो धर्म क्रूरता को पोषण देने वाला होता है ।
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