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व्यक्तिवाद और समाजवाद
एक बार गुरुदेव श्री तुलसी ने कहा था :"जहां मनुष्य को व्यक्तिवादी होना चाहिए वहां वह समाजवादी है और हां उसे समाजवादी होना चाहिए वहां वह व्यक्तिवादी है। धर्म के क्षेत्र में मनुष्य को व्यक्तिवादी होना चाहिए, आचरण के महायज्ञ में सबसे पहले अपनी आहुति देनी चाहिए । वहां आदमी कहता है- 'जब सारी दुनिया नहीं सुधरती है तो मैं अकेला कैसे सुधर सकता हूं ! सब सुधरेंगे तो मैं भी सुधर जाऊंगा।'
धन का संग्रह करते समय वह नहीं सोचता कि बहुत सारी जनता को भरपेट रोटी नहीं मिलती तब मैं इतना संग्रह क्यों करूं? वह कहता है- 'अपने-अपने भाग्य की बात है । मैं किस-किस की चिन्ता करूं कि उन्हें रोटी मिली या नहीं मिली ? मुझे धन मिलता है तब मैं क्यों नहीं संग्रह करूं?' . केवल आंसू ही शेष रहे
सामाजिक जीवन में व्यक्तवादी मनोवृति के कारण मनुष्य कितना क्रूर हो जाता है, उसे हम एक कहानी द्वारा समझ सकेंगे।
एक सेठ धन कमाने गया । लम्बी अवधि तक घर नहीं आया । पत्र पर पत्र आते रहे । सेठ उनकी उपेक्षा करता रहा । बारह वर्षों के बाद वह लौट रहा था । बीच में एक धर्मशाला में विश्राम किया । रात हुई, सेठ लेट गया । इतने में रोने की ध्वनि आयी । इधर रात बढ़ रही थी, उधरं आवाज बढ़ रही थी । सेठ की नींद भंग हो रही थी । सेठ ने अपना आदमी जांच करने के लिए भेजा । उसने सूचना दी- 'पास के कमरे में एक लड़का ठहरा हुआ है । उसके पेट में पीड़ा हो रही है । वह चिल्ला रहा है ।' सेठ मौन रहा ।
थोड़ी देर बाद फिर अपने आदमी से कहा- 'जााओ, उसे समझाओ, वह रोए नहीं, मुझे नींद नहीं आ रही है ।' आदमी कह आया, पर सेना रुका नहीं, और तेज हो गया । सेठ फुफकार उठा । उसने अपने परिचारकों से कहा- 'उसे धर्मशाला से निकाल दो ।' जंगल का न्याय कब नहीं चलता ? परिचारक गए, उस लड़के तथो उसके परिचारक के बिस्तर बाहर फेंक दिये । रात ढल रही थी। घर के भीतर भी लोग ठिठुर रहे थे। बाहर निकलने की कल्पना भी कठिन थी । सेठ आराम से सो गया । प्रातःकाल उठा ।
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