Book Title: Samasya ko Dekhna Sikhe
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 209
________________ स्वार्थ की मर्यादा एक दूकानदार ग्राहक से ज्यादा दाम लेना चाहता है । इस चाह के पीछे एक संस्कार और मनोवृत्ति है । उसे हम स्व और पर- इन दो शब्दों द्वारा व्यक्त कर सकते हैं । दुकानदार भी आदमी है और ग्राहक भी आदमी है | आदमी की दृष्टि से दोनों समान हैं, पर यह समानता सैद्धान्तिक भूमिका में होती है । व्यवहार की भूमिका में वह स्व और पर की रेखा से विभक्त हो जाती है । आदमी अपनी, अपने परिवार, जाति, समाज या देश की सुविधा को कुचल देता है । आकर्षण है स्व का व्यक्ति से परिवार बड़ा है, परिवार से जाति, जाति से समाज और समाज से देश बड़ा है। स्व जितना छोटा है, उसका उतना ही अधिक आकर्षण है । वह जैस-जैसे व्यापक होता वैसे-वैसे आकर्षण कम होता जाता है । व्यक्ति जितनी अपनी चिन्ता करता है उतनी परिवार की नहीं करता । जितनी परिवार की करता है उतनी जाति की नहीं करता । जाति से समाज की कम और समाज से देश की कम चिन्ता करता है । मनुष्य के मन में स्व और पर का संस्कार रूढ़ नहीं होता तो अनेक बुराइयां पनप ही नहीं पातीं । पर यह भेद स्वाभाविक है । दुनिया बहुत बड़ी है सब लोग सबके निकट नहीं रह सकते । जो जितना सहयोगी होता है, उसके हितों को आदमी उतनी ही प्राथमिकता देता है । इसीलिए दूसरों के हितों की वह चाहे अनचाहे उपेक्षा कर डालता है। स्व के हितों की प्राथमिकता और दूसरों के हितों को दूसरा स्थान देने की मनोवृत्ति व्यवहार की भूमिका से निष्पन्न होती है, इसलिये हम उसका निर्मूलन नहीं कर सकते किन्तु उनकी सीमारेखा का निर्धारण कर सकते हैं। इस मनोवृत्ति के निरंकुश विकास से समाज छिन्न-भिन्न हो जाता है। धर्म के मूल आधार (करुणा का स्रोत सूख जाता है इसलिये स्वार्थ की सीमा समाजशास्त्रियों तथा धर्माचार्यों दोनों ने निश्चित की है । समाज में विरोधी हितों का संदर्भ होता है । जहां उना सामंजस्य नहीं किया जाता, वहां निम्न प्रकार की प्रवृत्तियां फलित होती हैं : १. दूसरों के हितों के विघटन से स्वयं के हित का विघटन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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