Book Title: Samasya ko Dekhna Sikhe
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 211
________________ स्वार्थ की मर्यादा १९७ वह परिणाम को समझ ही नहीं सका । दूसरी प्रवृत्ति मूर्खतपूर्ण नहीं किन्तु अवांछनीय है । इतिहास में ऐसी घटनाएं घटित अधीयताम् : अंधीयताम ____ मौर्यकाल में पाटलिपुत्र नगर (वर्तमान पटना) बहुत समृद्ध था । उस समय वहाँ चन्द्रगुप्त का पौत्र और बिन्दुगुप्त का पुत्र सम्राट अशोक राज कर रहा था । उसके एक पुत्र का नाम कुणाल था । सम्राट् उसकी माँ से बहुत प्यार करता था । कुणाल अभी शिशु था । फिर भी सम्राट ने उज्जैनी का राज्य दे दिया । कुमार कुणाल को उज्जैनी ले जाया गया । वह वहीं रहने लगा । एक दन वहाँ से पत्र आया कि राजकुमार अब आठ वर्ष पूरे कर नवें वर्ष में चल रहे हैं । सम्राट् ने उसके उत्तर में पत्र लिखा- 'अब कुमार को पढ़ाना शुरू किया जाय । मूल शब्दावली थी- 'कुमार : अधीयताम् ।' कुणाल की सौतेली माँ सम्राट के पास बैठी थी। उसने पत्र लिया और उसे पढ़ा। सम्राट का ध्यान चुराकर उसने एक हलन्त नकार और जोड़ दिया | उससे 'कुमार अधीयताम्' का 'कुमार अन्धीयताम्' हो गया । सम्राट के मन में कोई पाप नहीं था । उन्होंने पत्र को फिर पढ़ा नहीं, उसे मुहरबन्द कर दूत को सौंप दिया । उज्जैनी के अधिकारी वर्ग ने पत्र पढ़ा तो सब अवाक रह गए । राजकुमार ने कहा- “मौर्यवंश में सम्राट की आज्ञा अनुल्लंघनीय होती है।" उसने ननु-नच किए बिना लोहे की गरम सलाई मंगा उन्हें आँखों में आँज दिया । राजकुमार अंधा हो गया । सम्राट को जब उसका पता चला , उन्हें बहुत दुःख हुआ । किन्तु अब उनके पास करने के लिए कुछ भी नहीं बचा था । एक अंधा राजकुमार उज्जैनी का शासन नहीं चला सकता, इसलिये सम्राट ने कुणाल को एक छोटे गांव का शासक नियुक्त कर दिया और उज्जैनी का शासन दूसरे राजकुमार को सौंप दिया । मान्य है वही हित कुणाल की सौतली मां ने अपना हित साधने के लिए कुणाल के हित का विघटन किया । यह स्वार्थ -साधना का निम्न कोटि का स्तर है, इसलिए वांछनीय नहीं है । सत्ता और अर्थ के क्षेत्र में ऐसी अनेक घटनाएं घटित हुई हैं । असंख्य लोग उससे प्रभावित हुए हैं । भावी पीढ़ी को इस अभिशाप से मुक्त करने के लिय अभी जितना चाहिए उतना प्रयत्न नहीं किया गया । सामाजिक भूमिका में उसी स्वार्थ को मान्यता दी जा सकती है जो दूसरों के हित का विघटन किए बिना स्वयं का हित साधने में प्रवृत्त हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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