Book Title: Samasya ko Dekhna Sikhe
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 230
________________ निर्णय एक भाई ने पूछा-निर्णायक हम स्वयं हैं, फिर किसी को क्यों मानें ! मैने कहा-गुरु को इसीलिए मानते हैं कि हम स्वयं निर्णायक हैं। हमें जो अपने से बड़ा लगता है, उसी को हम गुरु मानते हैं, उसे गुरु नहीं मानते, जो हमें अपने से छोटा लगे। शब्दों की दुनिया में कहा जाता है—हम आप्त-वाणी को मानते हैं, शास्त्रों को मानते हैं, गुरु को मानते हैं आदि-आदि । पर सचाई यह है कि हम अपने आपको मानते हैं। अपनी बुद्धि को मानते हैं। अपनी रुचि को मानते हैं । संस्कारो को मानते हैं। __ यह जगत् संकुलता से भरा है । शब्द एक है, अर्थ अनेक । एक पाठ के अनेक आचार्यों ने अनेक अर्थ किए हैं। किसे मान्य किया जाए? इसका निर्णय आगम नहीं करते, हम स्वयं करते हैं। वहां आगम का प्रामाण्य नहीं होता, वहां प्रमाण बनती है हमारी अपनी बुद्धि | गुरु जो व्याख्या देते हैं, उसे भी हम अपने संस्कारों और रुचि के अनुरूप ढालने का यल करते हैं । उसमें ढले तो ठीक, नहीं तो उसे हृदय से मान्यता नहीं देते। वाणी किसी सर्वज्ञ की हो या असर्वज्ञ की, सिद्धान्त किसी सर्वज्ञ का हो या असर्वज्ञ का, वह हमारा होकर ही मान्यता प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं । जो बात हमारी समझ में आती है, उसे हम प्रत्यक्ष मान्यता देते हैं और जो बात हमारी समझ में नहीं आती है, उसे हम श्रद्धा से मान्य करते हैं। श्रद्धा और क्या है ? हमारी ही बुद्धि का निर्णय है। हमने मान लिया कि अमुक व्यक्ति की बात मिथ्या नहीं हो सकती, हमारी समझ अधूरी हो सकती है। इसलिए उसकी सब बातें हम मान्य कर लेते हैं भले फिर वे समझ में आएं या न आएं। श्रद्धा हमारी बुद्धि का स्थित-पक्ष है । इसका अर्थ यह नहीं कि समझ से परे जो भी हो, उसे आंखें मूंदकर मान्य कर लें किन्तु इसका अर्थ यह होना चाहिए कि जो समझ से परे हो वह समझ का विषय बने उतना धैर्य रखें । सत्य-जिज्ञासा की लौ बुझ न पाए, आग्रह का भाव बच न पाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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