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पूर्ण और अपूर्ण
आत्मा पूर्ण है पर व्यक्ति पूर्ण नहीं है । वह अपूर्ण है, इसीलिए उसमें लिप्सा है। लिप्सा अपूर्णता का चिह्न है । जिसमें जितनी अपूर्णता होगी, उसमें उतनी ही लिप्सा होगी । मनुष्य की अपूर्णता अतृप्ति के द्वारा अभिव्यक्त होती है। उसका शरीर अतृप्त है और मन भी । शारीरिक तृप्ति के लिए मनुष्य पदार्थ पाने की इच्छा करता है और मन की तृप्ति के लिए वह उसे भी पाना चाहता है, जो पदार्थ नहीं है । यश कोई पदार्थ नहीं है । पद भी पदार्थ नहीं है । किन्तु मनुष्य में यशेलिप्सा भी है. और पद-लिप्सा भी है । यश से मनुष्य को कुछ भी नहीं मिलता पर तृप्ति ऐसी मिलती है, जैसी सम्भवतः और किसी से नहीं मिलती। अधिकारशून्य पद की भी यही दशा है । अधिकारयुक्त पद से कुछ मिलता भी है पर वह नहीं मिलता, जिससे अपूर्णता मिटे । "
अपने-आप में सब पूर्ण हैं । कोई उसे पा गया है, कोई प्राप्ति के पथ पर है। किसी की उसमें रुचि नहीं है तो किसी में उसकी समझ नहीं है । पर बहुत सच है कि पदार्थों की संचिति से कोई भी परिपूर्ण नहीं है । एक की पूर्णता दूसरे की पूर्णता के सामने अपूर्णता में परिणत हो जाती है।
__ पदार्थ अपने-आप में पूर्ण हैं | वे न हमें पूर्ण बनाते हैं और न अपूर्ण | हम उन पर अपने ममत्व का धागा डालकर अपूर्ण बन जाते हैं । पूर्णता का मार्ग यही है कि ममत्व का धागा टूट जाए।
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